ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 15
ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ब्रह्मा॑ कृणोति॒ वरु॑णो गातु॒विदं॒ तमी॑महे। व्यू॑र्णोति हृ॒दा म॒तिं नव्यो॑ जायतामृ॒तं वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्मा॑ । कृ॒णो॒ति॒ । वरु॑णः । गा॒तु॒ऽविद॑म् । तम् । ई॒म॒हे॒ । वि । ऊ॒र्णो॒ति॒ । हृ॒दा । म॒तिम् । नव्यः॑ । जा॒य॒ता॒म् । ऋ॒तम् । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मा कृणोति वरुणो गातुविदं तमीमहे। व्यूर्णोति हृदा मतिं नव्यो जायतामृतं वित्तं मे अस्य रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मा। कृणोति। वरुणः। गातुऽविदम्। तम्। ईमहे। वि। ऊर्णोति। हृदा। मतिम्। नव्यः। जायताम्। ऋतम्। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरेतं कीदृशं प्राप्नुयादित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
वयं यदृतं ब्रह्म वरुणो गातुविदं कृणोति तमीमहे तत्कृपया यो नव्यो विद्वान् हृदा मतिं व्यूर्णोति सोऽस्माकं मध्ये जायताम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १५ ॥
पदार्थः
(ब्रह्म) परमेश्वरः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (कृणोति) करोति (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः (गातुविदम्) वेदवाग्वेत्तारम् (तम्) (ईमहे) याचामहे (वि) (ऊर्णोति) निष्पादयति (हृदा) हृदयेन। अत्र पद्दन्नो०। इति हृदयस्य हृदादेशः। (मतिम्) विज्ञानम् (नव्यः) नवीनो विद्वान् (जायताम्) (ऋतम्) सत्यरूपम् (वित्तं, मे, अस्य०) इति पूर्ववत् ॥ १५ ॥
भावार्थः
नहि कस्यचिन्मनुष्यस्योपरि प्राक्पुण्यसंचयविशुद्धक्रियमाणाभ्यां कर्मभ्यां विना परमेश्वरानुग्रहो जायते। नह्येतेन विना कश्चित्पूर्णां विद्यां प्राप्तुं शक्नोति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरस्माकं मध्ये प्राप्तपूर्णविद्याः शुभगुणकर्मस्वभावयुक्ता मनुष्याः सदा भूयासुरिति परमात्मा प्रार्थनीयः। एवं नित्यं प्रार्थितः सन्नयं सर्वव्यापकतया तेषामात्मानं सम्प्रकाशयतीति निश्चयः ॥ १५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कैसे इसको पावे, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हम लोग जो (ऋतम्) सत्यस्वरूप (ब्रह्म) परमेश्वर वा (वरुणः) सबसे उत्तम विद्वान् (गातुविदम्) वेदवाणी के जाननेवाले को (कृणोति) करता है (तम्) उसको (ईमहे) याचते अर्थात् उससे माँगते हैं कि उसकी कृपा से जो (नव्यः) नवीन विद्वान् (हृदा) हृदय से (मतिम्) विशेष ज्ञान को (व्यूर्णोति) उत्पन्न करता है अर्थात् उत्तम-उत्तम रीतियों को विचारता है वह हम लोगों के बीच (जायताम्) उत्पन्न हो। शेष अर्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ १५ ॥
भावार्थ
किसी मनुष्य पर पिछले पुण्य इकट्ठे होने और विशेष शुद्ध क्रियमाण कर्म करने के विना परमेश्वर की दया नहीं होती और उक्त व्यवहार के विना कोई पूरी विद्या नहीं पा सकता, इससे सब मनुष्यों को परमात्मा की ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हम लोगों में परिपूर्ण विद्यावान् अच्छे-अच्छे गुण, कर्म, स्वभावयुक्त मनुष्य सदा हों। ऐसी प्रार्थना को नित्य प्राप्त हुआ परमात्मा सर्वव्यापकता से उनके आत्मा का प्रकाश करता है, यह निश्चय है ॥ १५ ॥
विषय
ऋतमय जीवन
पदार्थ
१. (वरुणः) = हमारे जीवनों से बुराइयों का निवारण करनेवाले प्रभु ब्रह्म ज्ञान को (कृणोति) = प्रकट करते हैं । सर्गारम्भ में वेदज्ञान देते हैं । “ब्रह्म वेदस्तपस्तत्त्वम्” - ब्रह्म के तीन अर्थ है - वेद , तप तथा तत्व । प्रभु वेदज्ञान देते हैं । उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए तपरूप साधन का प्रतिपादन करते हैं । तप से हम वेद के तत्त्व को समझनेवाले बनते हैं । इस तत्त्वज्ञान का परिणाम हमारे जीवनों पर पवित्रता के रूप में होता है । हम बुराइयों से बचकर श्रेष्ठ बनते हैं । इस प्रकार उस वरुण ने वेदज्ञान के द्वारा हमें भी (वरुण) = श्रेष्ठ बना दिया । (तम्) = उस (गातुविदम्) = मार्ग के जानने और प्राप्त करानेवाले प्रभु को (ईमहे) = हम आराधित करते हैं । प्रभु से सदा यही याचना करते हैं कि वे हमें ज्ञान के द्वारा सदा मार्गदर्शन करनेवाले हों ।
२. वे प्रभु (हृदा) = हृदय देश में स्थित होते हुए (मतिम्) = हमारी बुद्धि को (व्यूर्णोति) = [वि ऊर्णोति] आच्छादन से रहित करते हैं । बुद्धि पर आये हुए पर्दे को वे हटाते हैं और इस प्रकार ज्ञान के प्रकाश को दीप्त करनेवाले होते हैं ।
३. यह मल - आवरण से रहित बुद्धिवाला पुरुष (नव्यः) = [नु स्तुतौ] स्तुत्यतम जीवनवाला होता है और (ऋतं जायताम्) = यह ऋत हो जाता है । यह अपने जीवन में ऋत को स्थापित करता है , ऋत को क्या स्थापित करता है , ऋत ही हो जाता है । इसके सब कार्य सूर्य चन्द्रमा की गति की भाँति ठीक समय व ठीक स्थान पर होते हैं । (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक , अर्थात् सारा जगत् (मे अस्य) = मेरी इस बात को (वित्तम्) = जान ले कि ‘ऋत’ ही मार्ग है । ऋत के अपनानेवाले का जीवन ही प्रशस्त बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु वेद के द्वारा मार्ग का ज्ञान देते हैं । ‘ऋत’ = ठीक समय व ठीक स्थान पर सब कार्यों को करना ही मार्ग है । प्रभुभक्त अपने को ऋतमय बनाने का प्रयत्न करता है ।
विषय
ज्ञानोपदेश
भावार्थ
जो ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ, सबसे वरण करने योग्य, सब दुःखों का वारक वीर नायक, राजा, परमेश्वर और विद्वान् ( ब्रह्म ) ऐश्वर्य, ब्रह्म ज्ञान तथा दृढ़ रक्षण आदि कार्य ( कृणोति ) सम्पादन करता है ( तम् ) उस ( गातुविदम् ) वेद वाणी के जानने वाले श्रेष्ठ मार्ग के बतलाने वाले और पृथ्वी के स्वामी को हम (ईमहे) याचना करें, अथवा ( ब्रह्म ) महान् परमेश्वर या विद्वान् ( गातुविदं कृणोति ) जिस शिष्य को वेदज्ञ बना देता है हम उसे सत्संग के लिये प्राप्त हों । वह ( नव्यं ) स्तुति करने योग्य, नव शिक्षित सदा प्रसन्न होकर ( हृदा ) हृदय से , विचार २ कर ( मतिं ) ज्ञान को ( वि ऊर्णाति ) विविध प्रकारों से प्रकट करे । वह ( ऋतं ) उसका उपदेश प्रमाण योग्य, विश्वास्य, सत्य ( जायताम् ) हो । अथवा—आचार्य ( हृदा मतिं व्यूर्णोति ) हृदय से मनन योग्य ज्ञान प्रकट करे और ( नव्यः ऋतं जायताम् ) नवीन शिष्य उस सत्य ज्ञान को प्राप्त करे ! ( वित्तं मे० ) इत्यादि पूर्ववत् !
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
कोणत्याही माणसाची पूर्व पुण्याई एकत्र होण्याने व विशेष शुद्ध क्रियमाण कर्म केल्याखेरीज परमेश्वराची दया प्राप्त होत नाही व वरील व्यवहाराशिवाय कोणीही पूर्ण विद्या प्राप्त करू शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी परमेश्वराला अशी प्रार्थना केली पाहिजे की, आमच्यात परिपूर्ण विद्यायुक्त चांगली गुण, कर्म, स्वभावयुक्त माणसे सदैव असावीत अशी प्रार्थना केल्यावर परमात्मा सर्वव्यापकतेने त्यांच्या आत्म्यात प्रकाश पाडतो, हे निश्चित आहे. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Brahma, lord supreme, creates, Varuna, lord of love and justice, reveals the knowledge and shapes the man of knowledge who knows the ways of nature and the ways of the world. We pray to the lord supreme, we request the man of knowledge. He removes the veil of ignorance with his heart of love and refines our intelligence. We pray may new and newer facts of nature and divine law arise. May heaven and earth know and reveal the knowledge to us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God the Supreme Being, who is the Best and most acceptable makes a man knower of the Vedic Speech. We pray to Him. By His grace, may new learned persons express or reveal true knowledge from their hearts. The rest as before.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ब्रह्मा) परमेश्वर: | अत्र अन्येषामपि दृश्यते (अष्टा० इति दीर्घः) (गातुविदम्) वेदवाग्वेत्तारम् = Knower of the Vedic Speech. (मतिम्) विज्ञानम् = Special Knowledge. (ईमहे) याचामहे = Pray.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No man can receive the Grace of God without the accumulation of his previous good merits and his present noble actions. Without these two, none can attain perfect wisdom or knowledge. Therefore all men should pray to God that may great scholars endowed with good virtues and actions be born among us again and again. Earnestly prayed in this manner, God will enlighten their souls. Such is our firm conviction.
Translator's Notes
The word गातु (Gatu) is derived from गाङगतो गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् गीयते ज्ञायते येन सः गातुर्वेदस्तम् गातुरिति पदनामसु (निघ० ४.१) अनेन ज्ञानार्थो गृह्यते । So the word गातु Stands for Veda or Vedic speech. ईमहे - याच्या कर्मा (निघ० ३.१९) । The word मति is from मन-ज्ञानें (धातुपाठे) so the meaning of विज्ञानम् as given by Rishi Dayananda Sarasvati.
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