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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 16
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्त्रिय॑: स॒तीस्ताँ उ॑ मे पुं॒स आ॑हु॒: पश्य॑दक्ष॒ण्वान्न वि चे॑तद॒न्धः। क॒विर्यः पु॒त्रः स ई॒मा चि॑केत॒ यस्ता वि॑जा॒नात्स पि॒तुष्पि॒तास॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्त्रियः॑ । स॒तीः । तान् । ऊँ॒ इति॑ । मे॒ । पुं॒सः । आ॑आ॒हुः॒ । पश्य॑त् । अ॒क्ष॒ण्ऽवान् । न । वि । चे॒त॒त् । अ॒न्धः । क॒विः । यः । पु॒त्रः । सः । ई॒म् । आ । चि॒के॒त॒ । यः । ता । वि॒ऽजा॒नात् । सः । पि॒तुः । पि॒ता । अ॒स॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्त्रिय: सतीस्ताँ उ मे पुंस आहु: पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः। कविर्यः पुत्रः स ईमा चिकेत यस्ता विजानात्स पितुष्पितासत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्त्रियः। सतीः। तान्। ऊँ इति। मे। पुंसः। आआहुः। पश्यत्। अक्षण्ऽवान्। न। वि। चेतत्। अन्धः। कविः। यः। पुत्रः। सः। ईम्। आ। चिकेत। यः। ता। विऽजानात्। सः। पितुः। पिता। असत् ॥ १.१६४.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 16
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विदुषीविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यान् अक्षण्वान् पश्यदन्धो न विचेतत् सतीः स्त्रिय आहुस्तानु मे पुंसो जनान् विजानीत। यः कविः पुत्रस्ता तानीमा विजानात् स विद्वान् स्यात् यो विद्वान् भवेत् स पितुष्पितासदिति यूयं चिकेत ॥ १६ ॥

    पदार्थः

    (स्त्रियः) (सतीः) विद्यासुशिक्षादिशुभगुणसहिताः (तान्) (उ) वितर्के (मे) मम (पुंसः) पुरुषान् (आहुः) कथयन्ति (पश्यत्) पश्येत्। अत्र लङ्यडभावः। (अक्षण्वान्) विज्ञानी (न) निषेधे (वि) (चेतत्) चेतेत् (अन्धः) ज्ञानशून्यः (कविः) विक्रान्तप्रज्ञः (यः) (पुत्रः) पवित्रोपचितः (सः) (ईम्) (आ) (चिकेत) विजानीत (यः) (ता) तानि (विजानात्) (सः) (पितुः) जनकस्य (पिता) जनकः (असत्) भवेत् ॥ १६ ॥

    भावार्थः

    यद्विद्वांसो जानन्ति तदविद्वांसो ज्ञातुं न शक्नुवन्ति। यथा विद्वांसः पुत्रानध्याप्य विदुषः कुर्य्युस्तथा विदुष्यः स्त्रियः कन्या विदुषीः संपादयेयुः। ये पृथिवीमारभ्य परमेश्वरपर्यन्तानां पदार्थानां गुणकर्मस्वभावान् विज्ञाय धर्म्मार्थकाममोक्षान् साध्नुवन्ति ते युवानोऽपि वृद्धानां पितरो भवन्ति ॥ १६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् और विदुषी स्त्रियों के विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिनको (अक्षण्वान्) विज्ञानवान् पुरुष (पश्यत्) देखे (अन्धः) और अन्ध अर्थात् अज्ञानी पुरुष (न) नहीं (वि, चेतत्) विविध प्रकार से जाने और जिनको (सतीः) विद्या तथा उत्तम शिक्षादि शुभ गुणों से युक्त (स्त्रियः) स्त्रियाँ (आहुः) कहती हैं (तानु) उन्हीं (मे) मेरे (पुंसः) पुरुषों को जानो (यः) जो (कविः) विक्रमण करने अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में क्रम-क्रम से पहुँचानेवाली बुद्धि रखनेवाला (पुत्रः) पवित्र वृद्धि को प्राप्त पुरुष (ता) उन इष्ट पदार्थों को (ईम्) सब ओर से (आ, विजानात्) अच्छे प्रकार जाने (सः) वह विद्वान् हो और (यः) जो विद्वान् हो (सः) वह (पितुः) पिता का (पिता) पिता (असत्) हो यह तुम (चिकेत) जानो ॥ १६ ॥

    भावार्थ

    जिसको विद्वान् जानते हैं उसको अविद्वान् नहीं जान सकते, जैसे विद्वान् जन पुत्रों को पढ़ाकर विद्वान् करें वैसे विदुषी स्त्रियाँ कन्याओं को विदुषी करें। जो पृथिवी से लेके ईश्वरपर्यन्त पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभावों को जान, धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करते हैं, वे ज्वान भी बुड्ढों के पिता होते हैं ॥ १६ ॥

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    विषय

    स्त्री होते हुए पुमान्, पुत्र होते हुए पिता के भी पिता

    पदार्थ

    १. एक संयमी पुरुष कह सकता है कि (स्त्रियः सतीः) = स्त्री होते हुए भी (तान् उ) = उन इन्द्रियों को ही (मे) = मेरे लिए तो (पुंसः आहुः) = पुमान् कहते हैं । चक्षु आदि इन्द्रियाँ रूपादिवाले विषयों से मेल कराती हैं। इस [मेल] संघात कराने के कारण ही उन्हें 'स्त्रियः' शब्द से कहा जाता है। शब्दादि विषयों का हरण करने से ये 'स्त्रियाँ' ही हैं और इस हरण के द्वारा ही जीव को विषयासक्त करके ये उसका [संघात] विनाश कर रही हैं परन्तु ये ही इन्द्रियाँ संयत होने पर रक्षक बन जाती हैं। अब ये 'स्त्रियाँ' न होकर 'पुंसः' बन जाती हैं । २. इन्द्रियों की इस द्विरूपता को (पश्यत्) = देखनेवाला व्यक्ति ही (अक्षण्वान्) = उत्तम आँखोंवाला है (न विचेतत्) = इस द्विरूपता को न समझनेवाला अन्धः = अन्धा है। ये इन्द्रियाँ विषयों में ले जाकर, क्षणिक आनन्द के भोग में फँसाकर हमें समाप्त भी कर सकती हैं और संयत होकर, उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्ति का साधन होते हुए, कण-कण में प्रभु-महिमा का दर्शन कराती हुई ये हमारी रक्षा करनेवाली भी हो सकती हैं । सामान्य मनुष्य अपने कल्याण का मार्ग न देख सकने के कारण अन्धा ही है । ३. परन्तु (यः) = जो (ईम्) = अब आचिकेत इन इन्द्रियों के स्वरूप का अनुशीलन करके इन्हें सर्वथा समझ लेता है (सः) = वह तो (कवि:) = ज्ञानी बनता है और (पुत्र:) = [पुञ्+त्र] ज्ञान से अपना पवित्रीकरण करके रक्षण करनेवाला होता है। जो इन्द्रियाँ विषयों में फँसाकर मारनेवाली थीं, वे ही अब अन्तर्मुख होकर आत्म-दर्शन करानेवाली होती हैं। विषयों के तत्त्व को समझने के क हम कवि बनते हैं- गहराई तक, तत्त्व तक पहुँचनेवाले बनते हैं। विषय-पंक में न फँसकर अपने को पवित्र रख पाते हैं और दुःखों में फँसने से अपने को बचा पाते हैं । ४. इस प्रकार (यः) = जो (ताः) = 'स्त्रियः' शब्द से कही गई इन इन्द्रियों को (विजानात्) = अच्छी प्रकार समझ लेता है (सः) = वह (पितुः) = पिता (असत्) = रक्षकों में रक्षक बनता है, अर्थात् महान् रक्षक तो यही हुआ है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियों और विषय-भोगों के वास्तविक स्वरूप को समझनेवाला ही सबसे महान् रक्षक है।

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    विषय

    परमेश्वरी शक्तियों का वर्णन।

    भावार्थ

    ( स्त्रियः सतीः) जो स्त्रियें हैं ( तान् उ मे पुंसः आहुः ) उनको ही विद्वान् लोग पुरुष कहते हैं अर्थात् ( मे) मुझ परमेश्वर की ( स्त्रियः ) प्रकृति के परमाणुओं में घनी भाव उत्पन्न करने वाली शक्तियां ( सतीः ) जो सद् रूप से या बल रूप से वर्त्तमान हैं उनको ही विद्वान् (पुंसः आहुः) पुरुष रूप से अर्थात् अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण आदि पुमान् नामों से पुकारते हैं ( तान् अक्षण्वान् पश्यत् ) उनको चक्षु वाला ज्ञानी ही देखता है। ( अन्धः न विचेतत् ) अन्धा अज्ञानी पुरुष उनको विशेष रूप से नहीं जान सकता। ( यः) जो ( पुत्रः ) पुरुष (कविः ) क्रान्त दर्शी मेधावी है ( सः ईम् आ चिकेत ) वही उस त्तत्व को जानता है। ( यः ताः विजानात् ) जो उन शक्तियों को विशेष रूप से जान लेता है वही ( पितुः पिता असत् ) अपने पिता का भी पिता होने योग्य है। ज्ञानवान् होने से वह पिता के तुल्य आदर योग्य होता है। ( २ ) आदित्य पक्षमें—सूर्य के रश्मि ही जल को अपने गर्भ में धारण करने में स्त्रियों के समान होते हैं और वे ही पुनः भूमि पर पुरुष के समान वीर्यवत् जल सेचन कर ओषधियों के उत्पादक होने से पुरुष के समान होते हैं। (३) आत्म पक्षमें—ज्ञानवृत्तियां या प्राण वृत्तियां अपने गर्भ में आत्मा को धारण करने से स्त्रियों के समान हैं और वे ही प्राण होने से पुमान् हैं। अथवा (ताँ = ताः उ मे पुंसः—मम पुरुषस्यात्मनः) वे सब वृत्तियां मुझ पुरुष की ही है ऐसा बतलाते हैं। उनको ज्ञानी ही जानता है, अज्ञानी नहीं जानता ब्रह्मज्ञानी पुरुष पुत्र अर्थात् अल्पायु होकर भी ज्ञानवान् होने से आंगिरस कवि के समान वृद्ध अज्ञानियों के पिता के समान आदरणीय है।

    टिप्पणी

    ( समस्त सूक्त देखो अथर्व० का० ९ । सू० ९, १० )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१—४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या गोष्टीला विद्वान जाणतात त्याला अविद्वान लोक जाणत नाहीत. जसे विद्वान पुत्रांना शिकवून विद्वान करतात तसे विदुषी स्त्रियांनी कन्यांना विदुषी करावे. जे पृथ्वीपासून ईश्वरापर्यंत पदार्थांच्या गुण कर्म स्वभावाला जाणतात ते धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करतात. ते तरुण असूनही वृद्धांचे पिता असतात. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Female they are, intelligent and educated, and though women, I am told rightly, they are male too. One who has eyes can see this, but one who is blind, even though he has eyes, doesn’t see this, doesn’t know. The son who has the vision of a poet knows this well, and one who knows this has an old head on young shoulders. In other words, he has the vision and knowledge of the father of fathers.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Certain attributes and duties of the learned men and women are placed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those women who are endowed with wisdom, good education and other noble virtues are not inferior to men possessing good virtues and vitality (they are equally to be honored and respected). Only one who has eyes (wise man) beholds it. The blind (ignorant) does not see. He who is a sage son understands all this and he who discriminates between right and wrong is the father of the father. (He is to be revered like a father even by elderly persons).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Uneducated persons can not know what a learned person can. It is the duty of the learned men and women to make the boys and girls educated. Having acquired the knowledge of quality, working and nature, one becomes capable to know all from God to earth, accomplishes Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipations). Such people are regarded as fathers even though they may be young.

    Foot Notes

    (सती:) विद्यासुशिक्षादिशुभगुणसहिताः = Women endowed with wisdom, good education and other good virtues. (कविः) विक्रान्तप्रज्ञः = Very wise, a sage. (अन्धः ) ज्ञानशून्यः = Devoid of knowledge.

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