ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 9
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒क्ता मा॒तासी॑द्धु॒रि दक्षि॑णाया॒ अति॑ष्ठ॒द्गर्भो॑ वृज॒नीष्व॒न्तः। अमी॑मेद्व॒त्सो अनु॒ गाम॑पश्यद्विश्वरू॒प्यं॑ त्रि॒षु योज॑नेषु ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒क्ता । मा॒ता । आ॒सी॒त् । धु॒रि । दक्षि॑णायाः । अति॑ष्ठत् । गर्भः॑ । वृ॒ज॒नीषु॑ । अ॒न्तरिति॑ । अमी॑मेत् । व॒त्सः । अनु॑ । गाम् । अ॒प॒श्य॒त् । वि॒श्व॒ऽरू॒प्य॑म् । त्रि॒षु । योज॑नेषु ॥
स्वर रहित मन्त्र
युक्ता मातासीद्धुरि दक्षिणाया अतिष्ठद्गर्भो वृजनीष्वन्तः। अमीमेद्वत्सो अनु गामपश्यद्विश्वरूप्यं त्रिषु योजनेषु ॥
स्वर रहित पद पाठयुक्ता। माता। आसीत्। धुरि। दक्षिणायाः। अतिष्ठत्। गर्भः। वृजनीषु। अन्तरिति। अमीमेत्। वत्सः। अनु। गाम्। अपश्यत्। विश्वऽरूप्यम्। त्रिषु। योजनेषु ॥ १.१६४.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो गर्भो वृजनीष्वन्तरतिष्ठत् यस्य दक्षिणाया धुरि माता युक्ताऽऽसीत् वत्सो गामिवामीमेत् त्रिषु योजनेषु विश्वरूप्यमन्वपश्यत् स पदार्थविद्यां ज्ञातुमर्हति ॥ ९ ॥
पदार्थः
(युक्ता) (माता) पृथिवी (आसीत्) (धुरि) या धरति तस्याम् (दक्षिणायाः) दक्षिणस्याम् (अतिष्ठत्) तिष्ठति (गर्भः) ग्रहीतव्यः (वृजनीषु) वर्जनीयासु कक्षासु (अन्तः) मध्ये (अमीमेत्) प्रक्षिपति (वत्सः) (अनु) (गाम्) (अपश्यत्) पश्यति (विश्वरूप्यम्) विश्वेषु अखिलेषु रूपेषु भवम् (त्रिषु) (योजनेषु) बन्धनेषु ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गर्भरूपो मेघो गच्छत्सु घनेषु विराजते तथा सर्वेषां मान्यप्रदा भूमिराकर्षणेषु युक्तास्ति यथा वत्सो गामनुगच्छति तथेयं सूर्यमनुभ्रमति यस्यां सर्वाणि शुक्लादीनि रूपाणि सन्ति सैव सर्वेषां पालिकास्ति ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (गर्भः) ग्रहण करने के योग्य पदार्थ (वृजनीषु) वर्जनीय कक्षाओं में (अन्तः) भीतर (अतिष्ठत्) स्थिर होता है, जिसके (दक्षिणायाः) दाहिनी (धुरि) धारण करनेवाली धुरि में (माता) पृथिवी (युक्ता) जड़ी हुई (आसीत्) है। और (वत्सः) बछड़ा (गाम्) गौ को जैसे-वैसे (अमीमेत्) प्रक्षेप करता है तथा (त्रिषु) तीन (योजनेषु) बन्धनों में (विश्वरूप्यम्) समस्त पदार्थों में हुए भाव को (अन्वपश्यत्) अनुकूलता से देखता है वह पदार्थविद्या के जानने को योग्य है ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गर्भरूप मेघ चलते हुए बद्दलों में विराजमान है, वैसे सबको मान्य देनेवाली भूमि आकर्षणों में युक्त है। जैसे बछड़ा गौ के पीछे जाता है, वैसे यह भूमि सूर्य का अनुभ्रमण करती है, जिसमें समस्त सुपेद, हरे, पीले, लाल आदि रूप हैं, वही सबका पालन करनेवाली है ॥ ९ ॥
विषय
सरलता, उदारता, वेदज्ञान
पदार्थ
१. (माता) = जीवन निर्माण की इच्छावाला शिष्य आचार्य से युक्ता आसीत् जोड़ा जाता है। कहाँ ? (दक्षिणायाः धुरि) = दक्षिणा के जुए में । आचार्य विद्यार्थी को [दक्षिण] सरल और उदार बनाकर संसार में भेजता है। २. 'यह विद्यार्थी आचार्य- कुल में कब तक रहे ?" इस प्रश्न का उत्तर है कि वह विद्यार्थी (वृजनीषु) = जीवन संघर्ष [Battles and struggles] में (अन्तः गर्भः) = अन्तर्गर्भ के समान (अतिष्ठत्) = ठहरता है। आचार्य उसे तब तक गर्भ में रखता है जब तक वह परिपक्व न हो जाए। आचार्य शिष्य की प्रलोभनों व वासनाओं से रक्षा करता है । ३. आचार्यकुल में रहता हुआ वह (वत्सः) = आचार्य का वत्स बनने का प्रयत्न करता है। आचार्य वेदमन्त्र बोलते हैं, यह भी (अनु) = आचार्य के पीछे, ठीक आचार्य के उच्चारण के अनुसार (अमीमेत्) = शब्द करता है। आचार्य के पीछे उच्चारण करता हुआ (विद्या गाम्) = वेद अपश्यत् देखता है, अर्थात् उसका स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करता है। ४. कौन-सी वेदवाणी का (विश्वरूप्यम्) =[विश्वविषयनिरूपणवतीम्] जो वेदवाणी सब सत्य- विद्याओं के निरूपणवाली है । उस वेदवाणी को यह शिष्य (त्रिषु योजनेषु) = तीनों योजनाओं में देखता है। उसके तीनों अर्थों को देखने का प्रयत्न करता है। ऋग्वेद मुख्य रूप से प्रकृति- सभी विज्ञानों का प्रतिपादन करता हुआ 'विज्ञानवेद' कहलाता है। इसमें सभी [Natural Sciences] का समावेश हो जाता है। यजुर्वेद जीव के कर्त्तव्य - सभी यज्ञों का निरूपण करता हुआ 'कर्मवेद' कहलाता है। सब [Social Sciences] का इसमें प्रतिपादन है। साम अध्यात्म [Metaphysics] का उपदेश करता हुआ 'उपासनावेद' कहलाता है। अथर्व अस्वस्थ पुरुष व राष्ट्र का वेद है। इसमें रोगों, युद्धों, राज्य व्यवस्थाओं व चिकित्साओं का सम्पूर्ण विषय आ गया है। विद्यार्थी आचार्य से इनका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करता है, [अपश्यत्] इन्हें स्पष्टरूप में समझ लेता है ।
भावार्थ
भावार्थ—जीवन-निर्माण का अभिलाषी अपने आपको आचार्य के साथ जोड़कर जहाँ उदार और सरल बनता है वहाँ वेदों का ज्ञान भी प्राप्त करता है ।
विषय
मातृगर्भ में बालकवत् अन्तरिक्ष में मेध और प्रकृति गर्भ से जगत्-उत्पत्ति का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार ( दक्षिणायाः ) कार्य करने में समर्थ और (धुरि) धारण करने में समर्थ पुरुष की शक्ति पर ( माता ) पुत्रों की माता ( युक्ता ) एक चित्त होकर आश्रय पाती है, उसके साथ संयोग करती है और अनन्तर ( वृजनीषु अन्तः ) बाह्य बाधाओं को वर्जन करने वाली सुरक्षित नाड़ियों के भीतर ( गर्भः अतिष्ठत् ) गर्भ स्थिर हो जाता है अनन्तर ( वत्सः अमीमेत् ) बालक उत्पन्न होकर शब्द करता है। उसी प्रकार विद्वान् जन ( त्रिषु योजनेषु ) तीनों लोकों में ( विश्वरूप्यम् ) समस्त रूपों के पदार्थों को उत्पन्न करने वाले परमेश्वर के सामर्थ्य को ( गाम् अनु ) इस पृथ्वी के समान ही उत्पादक पालक और विश्वजननी रूप में ( अनु अपश्यत् ) देखा करे। इसी प्रकार ( दक्षिणायाः धुरि ) शक्तिमती सूर्य की धारण शक्ति पर माता ( पृथिवी ) आश्रित है ( वृजनीषु अन्तः ) दिशाओं के बीच ( गर्भः ) अन्तरिक्ष में मेघ जल से गर्भित होकर ठहरता है। ( वत्सः ) मेघ (गाम् अनु अमीमेत् ) गाय को देख उसके प्रति बछड़े के समान गर्जना करता है इसी प्रकार ( त्रिषु योजनेषु ) तीन प्रकार के योगों में यही परमेश्वरी सर्ग के क्रम को साक्षत् करे। (३) इधर माता प्रकृति परमेश्वरी धारणशक्ति पर संयोग को प्राप्त होती है। गर्भ अर्थात् हिरण्यगर्भ विराट् ( वृजनीषु ) आपः अर्थात् कारण परमाणुओं के आश्रय रहता है। सूर्य सर्वाच्छादक पृथ्वी पर तेज प्रक्षेप करता है तीनों लोकों में यह विश्वरूप परमेश्वर के सर्ग को विद्वान् देखता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे गर्भरूप मेघ भ्रमण करणाऱ्या घनात विराजमान असतात. तसे सर्वांना मान्य असणारी भूमी आकर्षणांनी युक्त आहे. जसे वासरू गाईमागे जाते तसे ही भूमी सूर्याचे अनुभ्रमण करते जिच्यामध्ये संपूर्ण शुभ्र, हिरवे, पिवळे, लाल रूप आहे तीच सर्वांचे पालन करते. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The mother, earth, is joined to the sun and held in orbit in circumambulation of the sun on its own axis. The productive power and the seed of life stays in the clouds within its atmosphere along with it in its motion in the three orbits, i.e., on its own axis, round the sun and in the galaxy, and when it matures it roars and showers, looking at mother earth of various colour and form like a calf looking at the mother cow.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A mother depends upon the sustaining or upholding power of the father (her husband). When mated with him, she gets pregnant and preserves in her womb with all the nerve centers set in her. It cast away all obstacles and the child that is born of this intercourses cries aloud. Likewise, this mother earth depends upon the upholding power of the sun and the clouds stand in from all directions. It roars like the calf when sees its mother. In The all a wise man sees the rays of the sun, which is like a cow. The cloud roars like the calf and rains water. Consequently the earth gets impregnated (in a sense) and produces various food grains. The matter depends upon the upholding from the Omnipotent God and produces various objects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A cloud follows many other clouds and then the earth moves on the lower level of gravitation. It goes around the sun like a calf follows her mother cow. The earth with various objects of white and other colors upholds or sustains them.
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