ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 46
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - सूर्यः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमा॑हु॒रथो॑ दि॒व्यः स सु॑प॒र्णो ग॒रुत्मा॑न्। एकं॒ सद्विप्रा॑ बहु॒धा व॑दन्त्य॒ग्निं य॒मं मा॑त॒रिश्वा॑नमाहुः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । मि॒त्रम् । वरु॑णम् । अ॒ग्निम् । आ॒हुः॒ । अथो॒ इति॑ । दि॒व्यः । सः । सु॒ऽप॒र्णः । ग॒रुत्मा॑न् । एक॑म् । सत् । विप्राः॑ । ब॒हु॒ऽधा । व॒द॒न्ति॒ । अ॒ग्निम् । य॒मम् । मा॒त॒रिश्वा॑नम् । आ॒हुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम्। मित्रम्। वरुणम्। अग्निम्। आहुः। अथो इति। दिव्यः। सः। सुऽपर्णः। गरुत्मान्। एकम्। सत्। विप्राः। बहुऽधा। वदन्ति। अग्निम्। यमम्। मातरिश्वानम्। आहुः ॥ १.१६४.४६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 46
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयान्तर्गतेश्वरविषयमाह ।
अन्वयः
विप्रा इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमिति बहुधाऽऽहुः। अथो स दिव्यः सुपर्णो गरुत्मानस्तीति बहुधा वदन्ति एकं सद्ब्रह्म अग्निं यमं मातरिश्वानं चाहुः ॥ ४६ ॥
पदार्थः
(इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तम् (मित्रम्) मित्रमिव वर्त्तमानम् (वरुणम्) श्रेष्ठम्। (अग्निम्) सर्वव्याप्तं विद्युदादिलक्षणम् (आहुः) कथयन्ति (अथो) (दिव्यः) दिवि भवः (सः) (सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पालनानि यस्य सः (गरुत्मान्) गुर्वात्मा (एकम्) असहायम् (सत्) विद्यमानम् (विप्राः) मेधाविनः (बहुधा) बहुप्रकारैर्नामभिः (वदन्ति) (अग्निम्) सर्वव्याप्तं परमात्मरूपम् (यमम्) नियन्तारम् (मातरिश्वानम्) मातरिश्वा वायुस्तल्लक्षणम् (आहुः) कथयन्ति। अयं मन्त्रो निरुक्ते व्याख्यातः । निरु० ७। १८। ॥ ४६ ॥
भावार्थः
यथाऽग्न्यादेरिन्द्रादीनि नामानि सन्ति तथैकस्य परमात्मनोऽग्न्यादीनि सहस्रशो नामानि वर्त्तन्ते। यावन्तः परमेश्वरस्य गुणकर्मस्वभावाः सन्ति तावन्त्येवैतस्य नामधेयानि सन्तीति वेद्यम् ॥ ४६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर विद्वद्विषयान्तर्गत ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(विप्राः) बुद्धिमान् जन (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्त (मित्रम्) मित्रवत् वर्त्तमान (वरुणम्) श्रेष्ठ (अग्निम्) सर्वव्याप्त विद्युदादि लक्षणयुक्त अग्नि को (बहुधा) बहुत प्रकारों से बहुत नामों से (आहुः) कहते हैं। (अथो) इसके अनन्तर (सः) वह (दिव्यः) प्रकाश में प्रसिद्ध प्रकाशमय (सुपर्णः) सुन्दर जिसके पालना आदि कर्म (गरुमान्) महान् आत्मावाला है इत्यादि बहुत प्रकारों बहुत नामों से (वदन्ति) कहते हैं तथा वे अन्य विद्वान् (एकम्) एक (सत्) विद्यमान परब्रह्म परमेश्वर को (अग्निम्) सर्वव्याप्त परमात्मारूप (यमम्) सर्वनियन्ता और (मातरिश्वानम्) वायु लक्षण लक्षित भी (आहुः) कहते हैं ॥ ४६ ॥
भावार्थ
जैसे अग्न्यादि पदार्थों के इन्द्र आदि नाम हैं वैसे एक परमात्मा के अग्नि आदि सहस्रों नाम वर्त्तमान हैं। जितने परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव हैं उतने ही इस परमात्मा के नाम हैं, यह जानना चाहिये ॥ ४६ ॥
पदार्थ
पदार्थ = ( विप्राः ) = मेधावी विद्वान् ( एकम् सत् ) = एक सद्रूप परमात्मा को ( बहुधा ) = अनेक प्रकार से ( वदन्ति ) = वर्णन करते हैं, उसी एक को इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि ( अथ उ ) = और ( स: ) = वह ( दिव्यः ) = अलौकिक ( सुपर्ण: ) = उत्तम ज्ञान और उत्तम कर्मवाला ( गरुत्मान् ) = गौरवयुक्त है, उसी को ही ( यमम् मातरिश्वानम् ) = यम और मातरिश्वा वायु ( आहुः ) = कहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – एक परमात्मा के अनेक सार्थक नाम हैं। जैसे इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम, मातरिश्वा, इस मन्त्र में कहे गए हैं, और अन्य अनेक मन्त्रों में भी प्रभु के अनेक नाम वर्णित हैं । इन नामों से एक परमात्मा का ही उपदेश है । अनेक देवी देवताओं की उपासना का उपदेश वेदों में नहीं है। स्वार्थी लोगों ने ही अनेक देवताओं की उपासना को अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए कहा है । वेदों में तो इसका नाम निशान नहीं, वेदों में एक परमात्मा की उपासना का ही विधान है |
विषय
आत्मबोध
पदार्थ
१. जिस सत्ता की ओर साधारण लोगों का ध्यान नहीं है, उस सत्ता को ही (विप्राः) = ज्ञानी लोग, जो अपने को उत्तम भावनाओं से भरना चाहते हैं [वि+प्रा= भरना] (इन्द्रम्) = सर्वैश्वर्यशाली, (मित्रम्) = सबके प्रति स्नेहमय, (वरुणम्) = श्रेष्ठ, (अग्निम्) = सबसे अग्रस्थान में स्थित [अग्रणी] (आहुः) = कहते हैं । (अथ उ) = और (सः) = वह सत्ता ही (दिव्य:) = [ग्रुषु सूक्ष्मेषु पदार्थेषु भवः] सब सूक्ष्म पदार्थों में होनेवाली है, (सुपर्ण:) = पालन आदि उत्तम कर्मों को करनेवाली है और (गरुत्मान्) = ब्रह्माण्ड-शकट के महान् भार को उठानेवाली है। (एकं सत्) = उस अद्वितीय सत्ता को ये ज्ञानी (बहुधा) = भिन्न-भिन्न नामों से (वदन्ति) = कहते हैं। (अग्निम्) = वह आगे ले चलनेवाली सत्ता है, (यमम्) = सबका नियमन करनेवाली है और उसे (मातरिश्वानम्) = [मातरि अन्तरिक्षे शयति वर्धते] अन्तरिक्ष में वर्धमान, सारे आकाश में व्याप्त (आहुः) कहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - परमात्मा एक ही है, परन्तु गुण-कर्म-स्वभावों के अनुसार उस अद्वितीय सत्ता के अनेक नाम हैं ।
विषय
परम प्रभु के इन्द्र, मित्र, वरुणादि नाना नामों की व्यवस्था।
भावार्थ
विद्वान् लोग ( इन्द्रं मित्रं वरुणं अग्निम् जाहुः ) इन्द्र, मित्र और वरुण को ही ‘अग्नि’ कहते हैं । ( अथो ) और ( सः ) वह ही ( गरुत्मान् ) गरुत्मान् और ( दिव्यः सुपर्णः ) दिव्य ‘सुपर्ण’ कहता है । ( विप्राः ) विद्वान् लोग ( एकं सत् ) एक सत् पदार्थ को ही (बहुधा वदन्ति) बहुत तरह से कहते हैं, उसको ही ( अग्निं ) अग्नि, ( यमं ) यम ( मातरिश्वानम् ) और मातरिश्वा नाम से कहते हैं । परमेश्वर ऐश्वर्यवान् होने से ‘इन्द्र’ है सबका स्नेही और मृत्यु से त्राणकारी होने से ‘मित्र’ है । सर्वश्रेष्ठ और दुःख निवारक होने से वरुण, तेजोमय होने से ‘दिव्य’ है, भली प्रकार पालनकारी और पूर्ण होने से ‘सुपर्ण’ है । महान् आत्मा होने से ‘गरुत्मान्’ है । वह सब से पूर्व और ज्ञानवान् होने से ‘अग्नि’, सर्व नियन्ता होने से ‘यम’ जगन्निर्मात्री प्रकृति में और ज्ञाता आत्मा में भी सूक्ष्मतया व्यापक और गति दाता होने से ‘मातरिश्वा’ है। विद्युत् प्राण, जल, समुद्र, सूर्यं, अग्नि, मृत्यु, वायु आदि दिव्य पदार्थ भी भिन्न २ गुणों से ही इन्द्रादि नामों से कहे जाते हैं। और उनमें भी वे गुण परमेश्वर से प्राप्त होने से वे सब नाम परमेश्वर में ही मुख्यतया अधिक उचित हैं। अन्यों के वे गौण नाम हैं। वह परमेश्वर अद्वितीय होने से ‘एक’ है । सर्वत्र व्यापक, सर्वाश्रय, बलरूप एवं कारण होने से ‘सत्’ है । सब उसीकी नाना नामों और अलंकारों से स्तुति करते हैं । विशेष प्रमाण देखो अथर्व० ९। १०। २८॥ इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे अग्नी इत्यादी पदार्थांची इन्द्र इत्यादी नावे आहेत, तशी एका परमात्म्याची अग्नी इत्यादी हजारो नावे आहेत. जितके परमेश्वराचे गुण कर्म आहेत तितकीच परमात्म्याची नावे आहेत, हे जाणले पाहिजे. ॥ ४६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Reality is one, Truth is one, Ishvara is one and only One, not more than one. The learned and the wise speak of It in many ways. They say: It is Indra, glorious, Mitra, universal friend, Varuna, highest adorable, Agni, light of life, Divya, heavenly, Suparna, supreme beauteous, Garutman, supreme dynamic. They say: It is Agni, life and leader of existence, Yama, supreme controller, law and justice, and the judge, and Matarishva, supreme energy of the universe.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and names of God are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God is one but the wise call Him by various names to denote, His different attributes. They call Him Indra God of supreme power or Lord of the world; Mitra-the friend of all; Varuna-the most Desirable Supreme Being; Agni-the All knowing Supreme Leader; Divya-the shining one and Garutman -The mighty universal spirit. The sages (Rishis) describe the one being in various ways calling Him, Agni-Self refulgent one, Yamathe ordainer of the world and Matarishvan-the life-energy of the universe.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As there are many names of Agni like Indra and others, so there are thousands of names of the one God like Agni, Indra, Yama, Mitra and Varuna etc., These thousands of names are there to denote God's infinite attributes and functions.
Foot Notes
(सुपर्ण:) शोभनानि वर्णानि पालनानि यस्य सः = Good protector.(गरुत्मान्) गुर्वात्मा = Great universal spirit.
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