ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 37
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न वि जा॑नामि॒ यदि॑वे॒दमस्मि॑ नि॒ण्यः संन॑द्धो॒ मन॑सा चरामि। य॒दा माग॑न्प्रथम॒जा ऋ॒तस्यादिद्वा॒चो अ॑श्नुवे भा॒गम॒स्याः ॥
स्वर सहित पद पाठन । वि । जा॒ना॒मि॒ । यत्ऽइ॑व । इ॒दम् । अस्मि॑ । नि॒ण्यः । सम्ऽन॑द्धः । मन॑सा । च॒रा॒मि॒ । य॒दा । मा । आ । अग॑न् । प्र॒थ॒म॒ऽजाः । ऋ॒तस्य॑ । आत् । इत् । वा॒चः । अ॒श्नु॒वे॒ । भा॒गम् । अ॒स्याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्यः संनद्धो मनसा चरामि। यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः ॥
स्वर रहित पद पाठन। वि। जानामि। यत्ऽइव। इदम्। अस्मि। निण्यः। सम्ऽनद्धः। मनसा। चरामि। यदा। मा। आ। अगन्। प्रथमऽजाः। ऋतस्य। आत्। इत्। वाचः। अश्नुवे। भागम्। अस्याः ॥ १.१६४.३७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 37
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
उक्तं प्रकारान्तरेणाह ।
अन्वयः
यदा प्रथमजा मागन्नादिदृतस्यास्या वाचो भागमहमश्नुवे। यावदिदं प्राप्तो नास्मि तावदुक्तं यदिव न विजानामि मनसा संनद्धो निण्यश्चरामि ॥ ३७ ॥
पदार्थः
(न) निषेधे (वि) विशेषेण (जानामि) (यदिव) सङ्गतमिव (इदम्) जगत् (अस्मि) (निण्यः) अन्तर्हितः। अत्र वर्णव्यत्ययेन णत्वम्। निण्य इति निर्णीतान्तर्हितना०। निघं० ३। २५। (सन्नद्धः) सम्यग्बद्धः (मनसा) अन्तःकरणेन (चरामि) गच्छामि (यदा) (मा) मां जीवम् (आ) (अगन्) समन्तात्प्राप्ताः (प्रथमजाः) प्रथमात् कारणाज्जाताः पूर्वोक्ता महत्तत्त्वादयः (ऋतस्य) सत्यस्य (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (वाचः) वाण्याः (अश्नुवे) प्राप्नोमि (भागम्) (अस्याः) ॥ ३७ ॥
भावार्थः
अल्पज्ञाऽल्पशक्तिमत्त्वात् साधनैर्विना जीवः साध्यं ग्रहीतुं न शक्नोति। यदा श्रोत्रादीनि प्राप्नोति तदा वेदितुमर्हति। यावद्विद्यया सत्यं न जानाति तावदभिमानं कुर्वन् पशुरिव विचरति ॥ ३७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
पूर्वोक्त विषय को प्रकारान्तर से कहते हैं ।
पदार्थ
(यदा) जब (प्रथमजाः) उपादान कारण प्रकृति से उत्पन्न हुए पूर्वोक्त महत्तत्त्वादि (मा) मुझ जीव को (आ, अगन्) प्राप्त हुए अर्थात् स्थूल शरीरावस्था हुई (आत्, इत्) उसके अनन्तर ही (ऋतस्य) सत्य और (अस्याः) इस (वाचः) वाणी के (भागम्) भाग को विद्या विषय को मैं (अश्नुवे) प्राप्त होता हूँ। जबतक (इदम्) इस शरीर को प्राप्त नहीं (अस्मि) होता हूँ तबतक उस विषय को (यदिव) जैसे के वैसा (न) नहीं (वि, जानामि) विशेषता से जानता हूँ। किन्तु (मनसा) विचार से (संनद्धः) अच्छा बन्धा हुआ (निण्यः) अन्तर्हित अर्थात् भीतर उस विचार को स्थिर किये (चरामि) विचरता हूँ ॥ ३७ ॥
भावार्थ
अल्पज्ञता और अल्पशक्तिमत्ता के कारण साधनरूप इन्द्रियों के विना जीव सिद्ध करने योग्य वस्तु को नहीं ग्रहण कर सकता, जब श्रोत्रादि इन्द्रियों को प्राप्त होता है तब जानने को योग्य होता है, जबतक विद्या से सत्य पदार्थ को नहीं जानता तबतक अभिमान करता हुआ पशु के समान विचरता है ॥ ३७ ॥
विषय
मन से बँधा हुआ
पदार्थ
१. (यदि वा इदं अस्मि) = 'यह हूँ या यह हूँ' इस प्रकार ठीक-ठीक अपने रूप को (न विजानामि) = मैं नहीं जानता। २. न जानने का कारण यह है कि मैं (निण्यः) = अन्तर्हित हूँ, ढका हुआ-सा हूँ । ढके हुए होने का कारण यह है कि (मनसा) = मन से (सन्नद्धः) = सम्बद्ध होकर (चरामि) = मैं यहाँ संसार में विचर रहा हूँ। मन ने मुझे बुरी तरह बाँधा हुआ है। ३. परन्तु (यदा) = जब कभी प्रभुकृपा से सत्सङ्ग आदि के क्रम से (मा) = मुझे (ऋतस्य) = सब सत्य वाणियों का प्रकाश करनेवाली (प्रथमजा) = सृष्टि के आरम्भ में ऋषियों के हृदयों में प्रादुर्भूत हुई वेदवाणी (आगन्) = प्राप्त होती है तो उस समय (आत् इत्) = उसके बाद अविलम्ब ही (अस्याः वाच:) = इस वेदवाणी से मैं (भागम्) = भजनीय, सेवनीय आत्मस्वरूप को अश्नुवे प्राप्त कर लेता हूँ, जान लेता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ – विषयों में फँसा होने के कारण मैं नहीं जानता कि मैं क्या हूँ। प्रभुकृपा से वेदवाणी का ज्ञान प्राप्त करके मैं व्यसनों से बचकर आत्मतत्त्व का दर्शन करता हूँ ।
विषय
जीव की ज्ञानप्राप्ति ।
भावार्थ
( यत् इव ) जिस तरह का ( इदम् अस्मि ) यह मैं हूं सो (न विजानामि) मैं विशेष रूप से नहीं जानता हूं। मैं तो वस्तुतः ( मनसा ) अपने मननशील, मनोरूप अन्तःकरण से ( संनद्धः ) अच्छी प्रकार बंधा हुआ और ( निण्यः ) उसी में छिपा हुआ ( चरामि ) विचरता हूं, या समस्त सुख दुःखादि को भोगता हूं। और ( यदा ) जब ( ऋतस्य ) सत्य स्वरूप परमेश्वर के संकल्प से उत्पन्न ( प्रथमजाः ) सब से प्रथम उत्पन्न ज्ञान या सर्व श्रेष्ठ विकार पञ्च तन्मात्राएं, विषयग्राही इन्द्रिय रूप ज्ञान साधन ( मा आ अगन् ) मुझे प्राप्त होती हैं ( आत् इत् ) तभी ( अस्याः ) इस ( वाचः ) वाणी के द्वारा ( भागम् ) भजन करने योग्य परम ब्रह्म अथवा ( वाण्याः भागं ) वेद वाणी के भाग अर्थात् प्रतिपाद्य सत्य ज्ञान को मैं (अश्नुवे) प्राप्त करता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1184
ओ३म् न वि जा॑नामि॒ यदि॑वे॒दमस्मि॑ नि॒ण्यः संन॑द्धो॒ मन॑सा चरामि।
य॒दा माग॑न्प्रथम॒जा ऋ॒तस्यादिद्वा॒चो अ॑श्नुवे भा॒गम॒स्याः ॥
ऋग्वेद 1/164/37
ओ३म् न वि जा॑नामि॒ यदि॑वे॒दमस्मि॑ नि॒ण्यः संन॑द्धो॒ मन॑सा चरामि।
य॒दा माग॑न्प्रथम॒जा ऋ॒तस्यादिद्वा॒चो अ॑श्नुवे भा॒गम॒स्याः ॥
अथर्ववेद 9/10/15
मैं क्या हूँ
मैं शरीर हूँ क्या ?
जन्मों का राहगीर हूँ क्या ?
राहगीर हूँ क्या ?
एक अमर तत्व हूँ क्या ?
या दासत्व में हूँ बन्धा
हूँ बन्धा
मैं क्या हूँ
मैं शरीर हूँ क्या ?
क्या है सन्सार कहाँ जा रहा
मेरा सम्बन्ध है इससे क्या
बन्धन में क्या है परिमितता ?
क्या आदि क्या अन्त इसका
कोई माने जग दु:खी मिथ्या
कोई कहे भ्रमजाल है क्या
भ्रमजाल है क्या
मैं क्या हूँ
मैं शरीर हूँ क्या ?
क्यों संशयों में दब रहा ?
इत उत क्यों मैं भटकता फिरा ?
ज्ञान तृप्ति की ढूँढ रही
कैसे किसे मैं पूछूँ कहाँ ?
दार्शनिक-वैज्ञानिकों से पूछूँ
मेरा यहाँ अस्तित्व है क्या
अस्तित्व है क्या
मैं क्या हूँ
मैं शरीर हूँ क्या ?
कहते हैं ऋतंभरा-प्रज्ञा
करती है जब हृदय-उदय
ना भेद-संशय उठने दिया
हृदय प्रभूत हो गया
वेद विज्ञान शास्त्र पढ़ा
अनजाना भेद भी खुल गया
खुल गया
मैं क्या हूँ
मैं शरीर हूँ क्या ?
अब तो ऋतंभरा प्रज्ञा से
मैं बना हूँ ज्ञानवृद्ध
सांसारिक ज्ञान में क्यों फसूँ
अब तो मैं पा चुका हूँ प्रज्ञा
प्रयत्न मेरे सफल हुए
पाकर प्रज्ञा ऋतंभरा
ऋतंभरा
मैं क्या हूँ
मैं शरीर हूँ क्या ?
जन्मों का राहगीर हूँ क्या ?
राहगीर हूँ क्या ?
एक अमर तत्व हूँ क्या ?
या दासत्व में हूँ बन्धा
हूँ बन्धा
मैं क्या हूँ
मैं शरीर हूँ क्या ?
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- २३.२.२००२ १.३० मध्यान्ह
राग :- जयजयवंती
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल दादरा ६ मात्रा
शीर्षक :- मैं क्या हूं ? भजन ७६४वां
*तर्ज :- *
00158-758
परिमितता = सीमा
राहगीर = रात्रि,पथिक
प्रज्ञा = समझदार
ऋतंभरा = सदा रहने वाली,ऋतमय एक रस बुद्धि
ज्ञानवृद्ध = महाज्ञानी
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
मैं क्या हूं ?
मैं क्या हूं? क्या मैं शरीर हूं? इसमें चेतना कहां से आई है?
मैं क्या वास्तव में अमर हूं? यह कुछ समझ नहीं आता। या क्या मैं बिल्कुल परिस्थितियों का गुलाम? परिमितता के इन बन्धनों से क्या मैं कभी छूट सकता हूं? यह संसार किस लिए है? किधर जा रहा है? मेरा इससे क्या संबंध है? कुछ समझ नहीं पाता। हमारे दर्शनों में कोई कुछ कहता है और कोई कुछ। उत्तर पश्चिम के दार्शनिक कुछ और वैज्ञानिक कुछ कहते हैं। मैं अपने को सब ओर से बना हुआ अनुभव करता हूं; संख्याओं से दबा हुआ इधर-उधर भटकता फिरता हूं; पर ज्ञान तृप्ति कहीं नहीं होती। कहते हैं कि जब 'ऋतंभरा प्रज्ञा का उदय हो जाता है वहां संजय और भ्रम हो ही नहीं सकता। वह योगिक प्रत्यक्ष है, उससे प्रत्येक तत्व का साक्षात्कार, प्रत्यक्ष हो जाता है। ओह! यदि वह रितंभरा प्रज्ञा मुझे प्राप्त हो जाए तो संसार की वाणीयां वेद शास्त्र दर्शन और विज्ञान जो कुछ कहते हैं उन सब का मतलब हल हो जाए।
यह भिन्न-भिन्न वाणीयां सब नए और पुरातन ग्रंथ जो कुछ कहते हैं, उनकी प्रतिपादित वस्तु मिल जाए। फिर यह परस्पर विरुद्ध दिखने वाले शास्त्र वचन मुझे बहका न सकेंगे। बस वह ऋतंभरा प्रज्ञा वही चाहिए--और कुछ नहीं चाहिए। वही मेरे इस भयंकर सन्निपात रोग का एकमात्र इलाज है। मुझे उसके बिना अब किसी सांसारिक ज्ञान से चैन नहीं मिल सकता। आ ह! ऋतंभरा प्रज्ञा! रितंभरा प्रज्ञा !! उसी के लिए हैं ये मेरे सारे प्रयत्न।
🕉👏ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा🌹🙏
🕉 वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
मराठी (1)
भावार्थ
अल्पज्ञता व अल्पशक्तीमुळे साधनरूपी इंद्रियांशिवाय जीव कोणत्याही वस्तूचे ग्रहण करू शकत नाही. जेव्हा श्रोत्र इत्यादी इंद्रिये प्राप्त होतात तेव्हा तो जाणण्यायोग्य बनतो. जोपर्यंत विद्येने सत्य पदार्थ जाणत नाही तोपर्यंत अभिमानी बनून पशूप्रमाणे भटकतो. ॥ ३७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I just do not know what I am like for sure, or what this world is. Self-imposed, self-bound, I move around with limited mind and understanding. But when the first evolutes of natural truth, i.e., intelligence and understanding of awareness come to me, and when the revelations of this Divine Word of truth bless me, then I realise my share of knowledge of the reality of existence that it is.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Learning is the key to know the truth. It has been instrumental in acquiring the truth.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I am yet unaware to know fully what I am in reality, for I am placed within the fettered mind? When I will attain the First Eternal Speech of God (Veda), then and then Only I will be able to enjoy the essence of the eternal world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Jiva (individual soul) is not able to grasp anything without the means, as it is of limited knowledge and power. It is practical only when it has ears and other senses and organs, that it can know. So long as it does not know the truth and the Vedic wisdom, it roams about like an animal, as his pride comes as a hurdle in his way.
Foot Notes
(निण्यः) अन्तर्हितः = Ignorant or hidden. अत्र वर्णव्यत्ययेनत्वम् (संनद्धः ) सभ्यग् बद्धः = Fettered.
बंगाली (1)
পদার্থ
ন বি জানামি যদিবেদমস্মি নিণ্যঃ সন্নদ্ধো মনসা চরামি।
যদা মাগন্ প্রথমজা ঋতস্যাদিদ্ বাচো অশ্নুবে ভাগমস্যাঃ।।৭৬।।
(ঋগ্বেদ ১।১৬৪।৩৭)
পদার্থঃ (যদি বা ইদম্ অস্মি) আমি কে আমি বা কী বা আমার স্বরূপ (ন বি জানামি) তা আমি জানি না। (মনসা) সীমিত ইন্দ্রিয় তথা মন দ্বারা (নিণ্যঃ) আমি আবদ্ধ হওয়ায় (সন্নদ্ধঃ) মূঢ় চিত্ত ও স্বল্পজ্ঞান নিয়ে (চরামি) এখানে সেখানে বিচরণ করি। কিন্তু (যদা) যখন (মা) আমার সামনে (ঋতস্য) সকল সত্য জ্ঞানের উন্মেষকারী (প্রথমজা) সৃষ্টির আদিতে উৎপন্ন বেদবাণী (আগন্) এসে প্রকাশিত হয়, (আৎ ইৎ) এরপরেই (অস্যাঃ বাচঃ) এই বেদবাণীর দ্বারা আমি (ভাগম্) ভজনীয়, সেবনীয় আত্মস্বরূপকে (অশ্নুবে) জানতে পারি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ মানুষ এই পার্থিব জগতের মোহ মায়ায় আবদ্ধ হয়ে চারদিকে লক্ষ্যহীনভাবে বিচরণ করে। এজন্য মানুষ তাদের আত্মস্বরূপকে বুঝতে পারে না। নিজের স্বরূপকে বোঝার ও জানার উপায় হচ্ছে সৃষ্টির আদিতে উৎপন্ন সত্য জ্ঞানের ভাণ্ডার বেদ। এই বেদবাণীকে আত্মস্থ করার মাধ্যমেই মানুষ তার নিজেকে জানতে পারে। ফলে মানব প্রকৃত সত্য উপলব্ধি করে সেই পরম সত্যের নিকট পৌঁছাতে পারে।।৭৬।।
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