ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 39
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः। यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒चः । अ॒क्षरे॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । यस्मि॑न् । दे॒वाः । अधि॑ । विश्वे॑ । नि॒ऽसे॒दुः । यः । तत् । न । वेद॑ । किम् । ऋ॒चा । क॒रि॒ष्य॒ति॒ । ये । इत् । तत् । वि॒दुः । ते । इ॒मे । सम् । आ॒स॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ॥
स्वर रहित पद पाठऋचः। अक्षरे। परमे। विऽओमन्। यस्मिन्। देवाः। अधि। विश्वे। निऽसेदुः। यः। तत्। न। वेद। किम्। ऋचा। करिष्यति। ये। इत्। तत्। विदुः। ते। इमे। सम्। आसते ॥ १.१६४.३९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 39
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरीश्वरविषयमाह ।
अन्वयः
यस्मिन्नृचः सकाशात्प्रतिपादितेऽक्षरे परमे व्योमन्परमेश्वरे विश्वे देवा अधि निषेदुः। यस्तन्न वेद स ऋचा वेदेन किं करिष्यति ये तद्विदुस्त इमे इदेव ब्रह्मणि समासते ॥ ३९ ॥
पदार्थः
(ऋचः) ऋग्वेदादेः (अक्षरे) नाशरहिते (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) व्योम्नि व्यापके परमेश्वरे (यस्मिन्) (देवाः) पृथिवीसूर्यलोकादयः (अधि) (विश्वे) सर्वे (निषेदुः) निषीदन्ति (यः) (तत्) ब्रह्म (न) (वेद) जानाति (किम्) (ऋचा) वेदचतुष्टयेन (करिष्यते) (ये) (इत्) एव (तत्) (विदुः) जानन्ति (ते) (इमे) (सम्) (आसते) सम्यगासते। अयं निरुक्ते व्याख्यातः । निरु० १३। १०। ॥ ३९ ॥
भावार्थः
यत्सर्वेषां वेदानां परमं प्रमेयं प्रतिपाद्यं ब्रह्मामरं च जीवाः कार्य्यकारणाख्यं जगच्चाऽस्ति। एषां मध्यात्सर्वाधारो व्योमद्व्यापकः परमात्मा जीवाः कार्यं कारणञ्च व्याप्यमस्ति। अतएव सर्वे जीवादयः पदार्थाः परमेश्वरे निवसन्ति। ये वेदानधीत्यैतत्प्रमेयं न जानन्ति ते वेदैः किमपि फलं न प्राप्नुवन्ति। ये च वेदानधीत्य जीवान् कार्यं कारणं ब्रह्म च गुणकर्मस्वभावतो विदन्ति ते सर्वे धर्मार्थकाममोक्षेषु सिद्धेषु आनन्दन्ति ॥ ३९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यस्मिन्) जिस (ऋचः) ऋग्वेदादि वेदमात्र से प्रतिपादित (अक्षरे) नाशरहित (परमे) उत्तम (व्योमन्) आकाश के बीच व्यापक परमेश्वर में (विश्वे) समस्त (देवाः) पृथिवी सूर्य लोकादि देव (अधि, निषेदुः) आधेयरूप से स्थित होते हैं। (यः) जो (तत्) उस परब्रह्म परमेश्वर को (न, वेद) नहीं जानता वह (ऋचा) चार वेद से (किम्) क्या (करिष्यति) कर सकता है और (ये) जो (तत्) उस परब्रह्म को (विदुः) जानते हैं (ते) (इमे, इत्) वे ही ये ब्रह्म में (समासते) अच्छे प्रकार स्थिर होते हैं ॥ ३९ ॥
भावार्थ
जो सब वेदों का परमप्रमेय पदार्थरूप और वेदों से प्रतिपाद्य ब्रह्म अमर और जीव तथा कार्यकारणरूप जगत् है, इन सभों में से सबका आधार अर्थात् ठहरने का स्थान आकाशवत् परमात्मा व्यापक और जीव तथा कार्य कारणरूप जगत् व्याप्य है, इसीसे सब जीव आदि पदार्थ परमेश्वर में निवास करते हैं। और जो वेदों को पढ़के इस प्रमेय को नहीं जानते, वे वेदों से कुछ भी फल नहीं पाते और जो वेदों को पढ़के जीव, कार्य, कारण और ब्रह्म को गुण, कर्म, स्वभाव से जानते हैं, वे सब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सिद्ध होते आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ ३९ ॥
विषय
प्रभु के ज्ञान से पारस्परिक प्रेम
पदार्थ
१. (ऋचः) = ऋचाएँ—गुणवर्णनात्मक सभी मन्त्र (अक्षरे) = अविनाशी प्रभु का वर्णन कर रहे हैं जो कि (परमे) = सर्वोत्कृष्ट हैं। प्रकृति 'अपरा' है, जीव 'पर' है और प्रभु 'परम' हैं। ये ऋचाएँ उस प्रभु का वर्णन करती हैं जो कि (व्योमन्) = [वि ओम् अन्] जिनके एक कन्धे पर प्रकृति है और दूसरे पर जीव । [वी = प्रकृति 'गति-प्रजनन - कान्ति- असन व खादन' का यही तो आश्रय है, अन् प्राणित होनेवाला जीव] । ये ऋचाएँ उस प्रभु में स्थित हैं (यस्मिन्) = जिसमें कि (विश्वे देवा:) = सब देव (अधिनिषेदुः) = अधीन होकर निषण्ण- स्थित हो रहे हैं । २. (यः) = जो (तत् न) = वेद उस प्रभु को नहीं जानता (ऋचा) = वह ऋचाओं से किं करिष्यति क्या लाभ प्राप्त करेगा ? (ये) = जो (इत्) = निश्चय से (तत् विदुः) = उस व्यापक प्रभु को जानते हैं (ते इमी) = वे ये लोग (समासते) = इस संसार में सम्यक् आसीन होते हैं, वे परस्पर प्रेम से उठते-बैठते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – सब ऋचाओं का अन्तिम तात्पर्य उस प्रभु में है जोकि अविनाशी, सर्वोत्कृष्ट व सर्वाधार है। उसी प्रभु में सब देव निषण्ण हैं। प्रभु को नहीं जाना तो ऋचाओं का कुछ लाभ नहीं 'आचारहीनं न पुनन्तु वेदाः' । प्रभु को जाननेवाले परस्पर प्रेम से व्यवहार करते हैं ।
विषय
सूर्य में किरणोंवत् परब्रह्म में ज्ञानियों की स्थिति ।
भावार्थ
( ऋचः ) ऋग् आदि चारों वेदों के बीच प्रतिपादन किये ( यस्मिन् ) जिस (अक्षरे) अविनाशी, अनादि, ( परमे ) सबसे उत्कृष्ट ( व्योमनि ) विशेष रूप से सब के रक्षक, और आकाश के समान अलेप, निराकार और सर्वव्यापक परमेश्वर में (विश्वे देवाः) सब तेजोमय, सूर्यादि लोक और समस्त विद्वान् और समस्त व्यवहार योग्य पदार्थ सूर्य में किरणों के समान ( अधि निषेदुः ) आश्रय पा रहे हैं ( यः ) जो अविद्वान् पुरुष ( तत् न वेद ) उसको नहीं जानता वह ( ऋचा ) ऋग् आदि वेदों से ( किम् करिष्यति ) क्या करेगा ? क्या फल प्राप्त कर वेद सकता है । ( ये इत् ) जो विद्वान् भी ( तद् विदः ) उस परम वेद्य, प्रतिपाद्य परम ब्रह्म और सत् कारण, एवं अमर्त्य तत्व आत्मा को (विदुः) ज्ञान लेते हैं ( ते इमे ) वे ही ये ( सम् आसते ) उस आनन्दमय परमेश्वर को सम्यग् ज्ञान पूर्वक उपासना करते हैं । उपासना, यज्ञादि कर्म परमेश्वर के परम तत्व को न जानकर किये हुए निष्फल हैं । अज्ञानी के मुख से वेद ऋचा का उच्चारण मात्र निष्फल है । उसको जान कर ही विद्वान् उसकी ऋचाओं द्वारा उत्तम उपासना कर सकता है । इसलिये श्रुति वाक्यों से श्रवण करके उपपत्तियों द्वारा मनन कर, योग साधनाओं से उसका साक्षात् कर, वेद द्वारा उसका सेवन करे । अथर्व० ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे सर्व वेद प्रमाणित असलेले अमर ब्रह्म व जीव आणि कार्यकारणरूपी जग आहे त्या सर्वांपैकी सर्वांचा आधार अर्थात स्थित राहण्याचे ठिकाण आकाशाप्रमाणे व्यापक परमात्मा व जीव आणि कार्यकारणरूपी जगत व्याप्य आहे. त्यामुळे सर्व जीव इत्यादी पदार्थ परमेश्वरात निवास करतात. जे वेद वाचून हे प्रमेय जाणत नाहीत ते वेदापासून कोणतेही फळ प्राप्त करू शकत नाहीत व जे वेद वाचून जीव, कार्यकारण व ब्रह्माच्या गुण, कर्म, स्वभावाला जाणतात. ते सर्व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करतात व आनंद प्राप्त करतात. ॥ ३९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Rks, Vedas, exist in the omniscient supreme Spirit of existence, infinite and imperishable as the eternal and ultimate space-time continuum. In That, all the divine powers of existence subsist. If one does not know or acknowledge that, what would he or she achieve with mere words of the Rks? Those who know Him, reside with Him.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The greatness of God is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God is imperishable, Supreme, all pervading. It is being dealt within the Vedas and the earth, the sun and other luminaries dwell in Him. What will one do merely by studying the Vedas if he does not know God. Those who know Him they dwell happily in Him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Immortal God who is the Paramount theme in the Vedas. There are souls and the matter, the world consisting of the cause and effect. Out of them, God is the Support of all and Omnipresent like the sky. The world and souls are all pervaded by God and dwell in God. Those who do not know this truth, they should not expect much benefit of the study of the Vedas. Those who know the nature and attributes of God, souls and the world consisting of the cause and effect, enjoy bliss with the cause and effect with the accomplishment of Dharma ( righteousness ) Artha ( wealth ) Karma (fulfilment of desires) and Moksha (emancipation).
Foot Notes
व्योमन् व्योम्नि व्यापके परमेश्वरे = In God pervading the sky and other objects. ( देवा: ) पृथिवी सूर्यलोकादयः = The earth, sun and other worlds.
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