यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 13
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषयः
देवता - आपो देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
1
इ॒यं ते॑ य॒ज्ञिया॑ त॒नूर॒पो मु॑ञ्चामि॒ न प्र॒जाम्। अ॒ꣳहो॒मुचः॒ स्वाहा॑कृताः पृथि॒वीमावि॑शत पृथि॒व्या सम्भ॑व॥१३॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम्। ते॒। य॒ज्ञिया॑। त॒नूः। अ॒पः। मु॒ञ्चा॒मि॒। न। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। अ॒ꣳहो॒मुच॒ इत्य॑ꣳह॒ऽमुचः॑। स्वाहा॑कृता॒ इति॒ स्वाहा॑ऽकृताः। पृ॒थि॒वीम्। आ। वि॒श॒त॒। पृ॒थि॒व्या। सम्। भ॒व॒ ॥१३॥
स्वर रहित मन्त्र
इयन्ते यज्ञिया तनूरपो मुञ्चामि न प्रजाम् । अँहोमुचः स्वाहाकृताः पृथिवीमाविशत । पृथिव्या सम्भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
इयम्। ते। यज्ञिया। तनूः। अपः। मुञ्चामि। न। प्रजामिति प्रऽजाम्। अꣳहोमुच इत्यꣳहऽमुचः। स्वाहाकृता इति स्वाहाऽकृताः। पृथिवीम्। आ। विशत। पृथिव्या। सम्। भव॥१३॥
विषय - फिर वे जल कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे (ते) तेरा (इयम्) यह (यज्ञिया) यज्ञ के योग्य (तनूः) शरीर (अपः) शुद्ध जलों को एवं प्राणों को (प्रजाम्) उत्पन्न होने वाली पालन करने योग्य प्रजा को नहीं छोड़ता और तू भी नहीं छोड़ता।
और जैसे मैं इन प्राण वा जलों को एवं ऐसे अपने शरीर को (न मुञ्चामि) नहीं छोड़ता, जैसे तुम (पृथिव्या) पृथिवी के साथ वैभव युक्त होते हो। और (होमुचः) दुःख से मुक्त करने वाले (स्वाहाकृताः) पुरुषार्थ से विधिपूर्वक शुद्ध किये हुये (अपः) संस्कार किये हुए जलों को ( पृथिवीम्) भूमि में (अविशत) विज्ञान से सब ओर से प्रविष्ट करो और जैसा मैं इसमें समर्थ हैं और विज्ञान से पृथिवी में प्रविष्ट होता है वैसे तू भी (सम्भव) बन और पृथिवी में प्रविष्ट हो ।। ४ । १३ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमा अलङ्कार है। सब मनुष्य विद्या से परस्पर पदार्थों को मिलाकर तथा उनका सेवन करके नीरोग शरीर और आत्मा की पालना करके सुखी रहें ॥ ४ ॥ १३ ।।
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । २ । २०-२१) में की गई है ॥
भाष्यसार - १. जल कैसे हैं-- इस यज्ञिय शरीर के लिए शुद्ध जलों की तथा प्राणों की आवश्यकता है। यह जल तथा प्राणों का त्याग नहीं कर सकता, प्रजा का भी परित्याग नहीं कर सकता, प्रजा की भी इसे आवश्यकता है। जल पृथिवी के साथ उत्पन्न हुए हैं जो दुःखों से मुक्त करने वाले एवं सुखों के देने वाले हैं जो वैज्ञानिक क्रियायों से शुद्ध किये जाते हैं, जो यज्ञ से शुद्ध किये जाते हैं जो पृथिवी में प्रविष्ट हो जाते हैं, विज्ञान से सर्वत्र प्रविष्ट हो जाते हैं। विद्या के द्वारा इन जल आदि पदार्थों को परस्पर मिलाकर इनका रीति से सेवन करके, शरीर और आत्मा की पालना करके सदा सुखी रहें। २. अलङ्कार--मन्त्र में उपमा वाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त है इसलिये यहाँ वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे शरीर प्राणों एवं जलों तथा प्रजा का परित्याग नहीं करता इसी प्रकार विद्वान लोग भी प्राणविद्या, जलविद्या और प्रजाविद्या का परित्याग न करें, जैसे जल पृथिवी के साथ उत्पन्न हैं इसी प्रकार विद्वान् लोग पृथिवी पर उत्पन्न होते रहें। जैसे जल दुःखों से छुड़ाने हारे हैं इसी प्रकार विद्वान् लोग भी सब मनुष्यों को दुःखों से मुक्त करते रहें। जैसे जल यज्ञादि क्रियाओं से शुद्ध किये जाते हैं। इसी प्रकार विद्वान् लोग भी यज्ञादि शुभ कर्मों के अनुष्ठान से स्वयं शुद्ध होकर सब मनुष्यों को शुद्ध करें, पापों से बचावें, धर्म में प्रवृत्त करें। जैसे जल पृथिवी में प्रविष्ट हो जाते हैं इसी प्रकार विद्वान् लोग भी भूगर्भ विद्या को सीख कर सबको सुखी करें तथा विज्ञान से सर्वत्र अव्याहत गति वाले हों ।। ४ । १३ ।।
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