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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 25
    ऋषिः - वत्स ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भूरिक् शक्वरी,भूरिक् गायत्री, स्वरः - निषादः, षड्जः
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    अ॒भि त्यं दे॒वꣳ स॑वि॒तार॑मो॒ण्योः क॒विक्र॑तु॒मर्चा॑मि स॒त्यस॑वꣳ रत्न॒धाम॒भि प्रि॒यं म॒तिं क॒विम्। ऊ॒र्ध्वा यस्या॒मति॒र्भाऽअदि॑द्यु॒त॒त् सवी॑मनि॒ हिर॑ण्यपाणिरमिमीत सु॒क्रतुः॑ कृ॒पा स्वः॑। प्र॒जाभ्य॑स्त्वा प्र॒जास्त्वा॑ऽनु॒प्राण॑न्तु प्र॒जास्त्वम॑नु॒प्राणि॑हि॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। त्यम्। दे॒वम्। स॒वि॒ता॑रम्। ओण्योः᳖। क॒विक्र॑तु॒मिति॑ क॒विऽक्र॑तु॒म्। अर्चा॑मि। स॒त्यस॑व॒मिति॑ स॒त्यऽस॑वम्। र॒त्न॒ऽधामिति॑ रत्न॒धाम्। अ॒भि। प्रि॒यम्। म॒तिम्। क॒विम्। ऊ॒र्ध्वा। यस्य॑। अ॒मतिः॑। भाः। अदि॑द्यु॒तत्। सवी॑मनि। हिर॑ण्यपाणि॒रिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिः। अ॒मि॒मी॒त॒। सु॒क्रतु॒रिति॑ सु॒ऽक्रतुः॑। कृ॒पा। स्व॒रिति॒ स्वः॑। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। त्वा॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। त्वा॒। अ॒नु॒प्राण॒न्त्वित्य॑नु॒ऽप्राण॑न्तु॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। त्वम्। अ॒नु॒ऽप्राणि॒हीत्य॑नु॒ऽप्राणि॑हि ॥२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्यं देवँ सवितारमोण्योः कविक्रतुमर्चामि सत्यसवँ रत्नधामभि प्रियम्मतिङ्कविम् । ऊर्ध्वा यस्यामतिर्भा अदिद्युतत्सवीमनि हिरण्यपाणिरमिमीत सुक्रतुः कृपा स्वः । प्रजाभ्यस्त्वा । प्रजास्त्वानुप्राणन्तु प्रजास्त्वमनुप्राणिहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। त्यम्। देवम्। सवितारम्। ओण्योः। कविक्रतुमिति कविऽक्रतुम्। अर्चामि। सत्यसवमिति सत्यऽसवम्। रत्नऽधामिति रत्नधाम्। अभि। प्रियम्। मतिम्। कविम्। ऊर्ध्वा। यस्य। अमतिः। भाः। अदिद्युतत्। सवीमनि। हिरण्यपाणिरिति हिरण्यऽपाणिः। अमिमीत। सुक्रतुरिति सुऽक्रतुः। कृपा। स्वरिति स्वः। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः। त्वा। प्रजा इति प्रऽजाः। त्वा। अनुप्राणन्त्वित्यनुऽप्राणन्तु। प्रजा इति प्रऽजाः। त्वम्। अनुऽप्राणिहीत्यनुऽप्राणिहि॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 25
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    भाषार्थ -
    हे परमात्मन् ! मैं-- (यस्य) जिस सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर के (सवीमनि) उत्पन्न हुये संसार में (उद्धर्वा) उत्तम (अमतिः) रूप और (भा:) प्रकाश (अदिद्युतत्) प्रकाशित है, और जिसकी (कृपा) करुणा (स्व:) सुख एवं आदित्य को उत्पन्न करती है, और-- जो (हिरण्यपाणिः) ज्योतिर्मय सूर्य आदि को अपने वश में रखने वाला (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञा और कर्म वाला है उसने (स्व:) आदित्य को (अमिमीत) बनाया है। (त्यम्) जिस (ओण्योः) द्युलोक और पृथिवी लोक के (सवितारम्) तथा अग्नि आदि देवों के उत्पन्न करने वाले (कविक्रतुम्) सर्वज्ञ, सब विद्या से युक्त बुद्धि वाले [सत्यसवसम्] सच्चे ऐश्वर्य और जगत् वाले (रत्नधाम्) रमणीय विज्ञान और लोकों को धारण करने वाले (प्रियम्) सबके प्रिय (मतिम्) वेदादिशास्त्रों और विद्वानों के द्वारा माने हुए (कविम्) वेदविद्या को उत्पन्न करने वाले (देवम्) सुखदायक (त्वा) तुझ जगदीश्वर की (प्रजाभ्यः) उत्पन्न सृष्टि के लिए (अभ्यर्चामि) प्रत्यक्ष पूजा करता हूँ। [त्वा] उक्त गुणों से युक्त आपकी कृपा से (प्रजाः) मनुष्य आदि सृष्टि (अनुप्राणन्तु) आयु को भोगे तथा कृपया आप (प्रजाः) सब प्राणियों को (अनुप्राणिहि) जीवन प्रदान कीजिए । हे सभाध्यक्ष राजपुरुष ! मैं--(यस्य) जिस शुभ गुणों से युक्त आपके (सवीमनि) उत्पन्न राज्य रूप संसार में (उर्द्धवा) जो उत्तम (अमतिः) रूप (भाः) प्रकाश (अदिद्युतत्) चमक रहा है और आपकी (कृपा) करुणा (स्वः) सुख को पैदा करती है। और-- जो (हिरण्यपाणिः) हिरण्य अर्थात् स्वर्ण आदि को अपने व्यवहार में रखने वाले तथा (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञा और कर्म वाले आपने (स्व:) सुख को (अमिमीत) अपने राज्य में उत्पन्न किया है। (त्यम्) राजसभा में विराजमान जनसमूह वाले (ओण्योः) द्यावा पृथिवी में (सवितारम्) रसों को उत्पन्न करने वाले (कविक्रतुम्) सब विद्याओं से युक्त बुद्धि वाले तथा क्रम के ज्ञाता [सत्यसवसम्] सच्चे ऐश्वर्य वाले (रत्नधाम्) रमणीय विज्ञान तथा हीरे आदि को धारण करने वाले (प्रियम्) सबसे प्रेम करने वाले (मतिम्) विद्वानों के द्वारा मान करने योग्य (कविम्) वेदविद्या के उपदेष्टा (त्वाम्) आप सभाध्यक्ष का (प्रजाभ्यः) उत्पन्न सृष्टि के लिये (अभ्यर्चामि) सबके सामने सत्कार करता हूँ। [त्वा] उक्त गुणों से युक्त आपके राज्य में (प्रजाः) मनुष्य आदि सृष्टि (अनुप्राणन्तु) आयु को भोगे तथा कृपा करके (त्वम्) आप (प्रजाः) प्राणियों के (अनुप्राणिहि) जीवन को समर्थ बनावें ।। ४ । २५ ।।

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है।। सब मनुष्य सब जगत् के स्रष्टा, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्, सच्चिदानन्द परमेश्वर की तथा प्रजापालन में तत्पर धार्मिक सभापति की पूजा एवं सत्कार नित्य करें, इनसे भिन्न किसी का नहीं। सब विद्वान् प्रजा के प्राणियों के सुख के लिये स्तुति, प्रार्थना और उपदेश नित्य करें, जिससे सब प्रजा उनकी आज्ञा के अनुकूल सदा रहे। जैसे प्राणों की रक्षा में सब जीवों की प्रीति है वैसे परमात्मा और सभापति में भी प्रीति रखें ।। ४ । २५।।

    भाष्यसार - १. ईश्वर के गुण--परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, सब जगत् का स्रष्टा, निराकार, प्रकाशस्वरूप है। जिसने सुख रूप मोक्ष को तथा सूर्य आदि को भी बनाया है, ज्योतिर्मय सूर्य आदि उसके हाथ में हैं, उसके वश में हैं, ये उसके आदेशानुसार व्यवहार करते हैं, उसकी प्रज्ञा और कर्म सबसे उत्तम हैं। द्युलोक और पृथिवी लोक तथा अग्नि आदि देवों का निर्माता वही है, वह सबको जानने वाली सब विद्या से भरपूर बुद्धि से युक्त है। सब ऐश्वर्य और सब जगत् उसी के अन्दर समाया हुआ है। वह रमणीय विज्ञान और लोकों को धारण करने वाला, सर्वप्रिय, वेदादिशास्त्रों तथा विद्वानों के द्वारा माना हुआ, वेदविद्या का विधाता और सब सुखों का दाता है । इसलिये ईश्वर सब प्रजा के लिए पूजा के योग्य है। २. सभाध्यक्ष के गुण--सभाध्यक्ष राजपुरुष संसार में सब शुभ गुणों से युक्त होता है अर्थात् उत्कृष्ट रूप वाला, विद्यादि गुणों से प्रकाशित तथा करुणादि गुणों के कारण राज्य में सब सुख उत्पन्न करता है। वह सुवर्ण आदि को अपने हाथ में रखता है, अपने वश में रखता है, उससे व्यवहार करता है। वह उत्तम प्रज्ञा और उत्तम कर्म वाला होता है । उसकी राजसभा में जनसमूह उपस्थित होता है। वह द्युलोक और पृथिवी लोक में यज्ञों के अनुष्ठान से रसों को उत्पन्न करता है, उसकी प्रज्ञा सब विद्याओं से युक्त होती है तथा वह कर्त्तव्य कर्म के क्रम (पूर्वापर) का द्रष्टा (ज्ञाता) होता है, वह रमणीय विज्ञान और हीरे जवाहरात आदि को धारण करने वाला, सबको प्रसन्न करने वाला, विद्वानों के द्वारा मान के योग्य तथा वेदविद्या का उपदेष्टा होता है। सब प्रजाजन ऐसे सभाध्यक्ष का सबके समक्ष अर्चन करें, सत्कार करें । ३. प्रजा के गुण-मन्त्र में उपदिष्ट गुणों वाले ईश्वर और सभाध्यक्ष का सब प्रजा प्रत्यक्ष रूप में पूजन करे, सत्कार करे। ईश्वर और सभाध्यक्ष के आश्रय से प्रजा आयु का उपभोग करे। प्रजा ईश्वर की आज्ञा का पालन करे तथा सभाध्यक्ष के अनुकूल रहे। जैसे प्रजा प्राणों में प्रीति रखती है, उनकी रक्षा करती है, इसी प्रकार परमात्मा में भी प्रीति रखे। सभाध्यक्ष में भी प्रीति रखे ।। ४ । २५ ।।

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