यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 21
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - वाग्विद्युतौ देवते
छन्दः - विराट् आर्षी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
1
वस्व्य॒स्यदि॑तिरस्यादि॒त्यासि॑ रु॒द्रासि॑ च॒न्द्रासि॑। बृह॒स्पति॑ष्ट्वा सु॒म्ने र॑म्णातु रु॒द्रो वसु॑भि॒राच॑के॥२१॥
स्वर सहित पद पाठवस्वी॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। अ॒सि॒। आ॒दि॒त्या। अ॒सि॒। रु॒द्रा। अ॒सि॒। च॒न्द्रा। अ॒सि॒। बृह॒स्पतिः॑। त्वा॒। सु॒म्ने। र॒म्णा॒तु॒। रु॒द्रः। वसु॑भि॒रिति॒॑ वसु॑ऽभिः। आ। च॒के॒ ॥२१॥
स्वर रहित मन्त्र
वस्व्यस्यदितिरस्यादित्यासि रुद्रासि चन्द्रासि । बृहस्पतिष्ट्वा सुम्ने रम्णातु रुद्रो वसुभिरा चके ॥
स्वर रहित पद पाठ
वस्वी। असि। अदितिः। असि। आदित्या। असि। रुद्रा। असि। चन्द्रा। असि। बृहस्पतिः। त्वा। सुम्ने। रम्णातु। रुद्रः। वसुभिरिति वसुऽभिः। आ। चके॥२१॥
विषय - फिर वह वाणी और बिजुली कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे जो (वस्वी) अग्नि आदि पदार्थ नामक वसु विद्या से सम्बन्धित, और जिसे चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन करने वालों ने प्राप्त किया [असि] है जो (अदितिः) प्रकाश के समान नित्य [असि] है जो (रुद्रा) प्राण वायु से सम्बन्धित तथा चवालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य सेवन करने वालों ने जिसे स्वीकार किया [असि] है, जो (आदित्या) आदित्य के समान पदार्थ और विद्या को प्रकाशित करने वाली एवं अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य के अनुष्ठाता ने जिसे स्वीकार किया
[असि ] है, जो (चन्द्रा) आनन्ददायक [ असि] है, जिसे (बृहस्पतिः) परमेश्वर वा विद्वान् (सुम्ने) सुख के निमित्त प्रेरित करता है, जिसको (रुद्रः) दुष्टों को रुलाने वाला विद्वान् (वसुभिः) सब विद्याओं में निवास करने वाले विद्वानों के संग रहने वाली वाणी वा विद्युत् को (आचके) सब ओर से चाहता है और जिसे मैं भी चाहता हूँ वैसे (त्वा) उस विद्या में आप भी (रम्णातु) रमण करो ।। ४ । २१ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार हैं। जैसे जो वाणी और विद्युत् प्राण और पृथिवी आदि के साथ अनेक व्यवहारों के साधक हैं, और जो जितेन्द्रियता आदि धर्माचरण पूर्वक यथायोग्य ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले मनुष्यों से विज्ञान के द्वारा क्रियाओं में प्रयुक्त किये हुए वाणी और विद्युत् अति सुखकारक होते हैं। इनका तू भी नित्य सेवन कर ।। ४ । २१ ।।
प्रमाणार्थ -
(असि) अस्ति। इस मन्त्र में 'असि’ पद पर सर्वत्र व्यत्यय है। (अदितिः) प्रकाशवन्नित्या । "अदितिर्द्यौ:०” इत्यादि वेद मन्त्र के प्रमाण से 'अदिति' शब्द से प्रकाशकारक अर्थ गृहीत होता है। (रम्णातु) रमयतु । यहाँ णिच् का अर्थ अन्तर्भावित है और विकरण प्रत्यय का व्यत्यय है। (चके) यहाँ पक्ष में लोट्-अर्थ में लिट् लकार है। (आचके) यह पद निघं० (२ । ६) में कान्ति अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । ४ । १ -२) में की गई है ।। ४ । २१ ।।
भाष्यसार - १. वाणी कैसी है-- इस वाणी का वसु अर्थात् अग्नि आदि पदार्थ विद्या से सम्बन्ध है, और इसे वसु अर्थात् २४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य-पालन करने वाले विद्वान् प्राप्त करते हैं, यह प्रकाश के समान नित्य है, प्राण-वायु से इसका सम्बन्ध है, अर्थात् प्राण से इसकी उत्पत्ति होती है, रुद्र अर्थात् ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्यपालन करने वाले विद्वान इसे स्वीकार करते हैं, प्राप्त करते हैं, यह आदित्य (सूर्य) के समान पदार्थों को प्रकाशित करने वाली तथा ४८ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन करने वाले विद्वानों के द्वारा विद्या का प्रकाश करने वाली और सबको आह्लादित करके अति सुख देने वाली है। परमेश्वर वेदवाणी का तथा विद्वान् वैदिक-वाणी का प्रकाश करता है। २. विद्युत् कैसी है--इस विद्युत् का वसु अर्थात् अग्नि आदि पदार्थ विद्या से गहरा सम्बन्ध है, वसु ब्रह्मचारी इसे प्राप्त करते हैं, यह प्रकाश के समान नित्य है, प्राण वायु से इसका सम्बन्ध है अर्थात् यह प्राण-वायु की प्रेरक है, रुद्र ब्रह्मचारी इसे प्राप्त करते हैं, यह सूर्य के समान रात्रि में पदार्थों को प्रकाशित करती है, आदित्य ब्रह्मचारी इसे प्राप्त करते हैं, यह विद्युत्-विद्या विद्वानों को आह्लादित करने वाली है, इसके सदुपयोग से सभी आह्लादित होते हैं। परमेश्वर और विद्वान् भी इस विद्युत्-विद्या का प्रकाश करता है ते हैं ।। ३. अलङ्कार--यहाँ श्लेष अलङ्कार होने से वाणी और विद्युत् दोनों अर्थों का ग्रहण किया है, तथा मन्त्र में उपमा वाचक 'इव' आदि शब्द के लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे बृहस्पति अर्थात् परमेश्वर और विद्वान् वेदवाणी और विद्युत् विद्या को प्रकाशित करते हैं, इसी प्रकार अन्य जन भी इस वाणी तथा विद्युत् विद्या में रमण करते रहें, इसे प्रकाशित करते रहें ।
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