यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 26
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
1
शु॒क्रं त्वा॑ शु॒क्रेण॑ क्रीणामि च॒न्द्रं च॒न्द्रेणा॒मृत॑म॒मृते॑न। स॒ग्मे ते॒ गोर॒स्मे ते॑ च॒न्द्राणि॒ तप॑सस्त॒नूर॑सि प्र॒जाप॑ते॒र्वर्णः॑ पर॒मेण॑ प॒शुना॑ क्रीयसे सहस्रपो॒षं पु॑षेयम्॥२६॥
स्वर सहित पद पाठशु॒क्रम्। त्वा॒। शु॒क्रेण॑। क्री॒णा॒मि॒। च॒न्द्रम्। च॒न्द्रेण॑। अ॒मृत॑म्। अ॒मृते॑न। स॒ग्मे। ते॒। गोः। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। ते॒। च॒न्द्राणि॑। तप॑सः। त॒नूः। अ॒सि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। वर्णः॑। प॒र॒मेण॑। प॒शुना॑। क्री॒य॒से॒। स॒ह॒स्र॒पो॒षमिति॑ सहस्रऽपो॒षम्। पु॒षे॒य॒म् ॥२६॥
स्वर रहित मन्त्र
शुक्रन्त्वा शुक्रेण क्रीणामि चन्द्रञ्चन्द्रेणामृतममृतेन । सग्मे ते गोरस्मे ते चन्द्राणि तपसस्तनूरसि प्रजापतेर्वर्णः परमेण पशुना क्रीयसे सहस्रपोषम्पुषेयम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
शुक्रम्। त्वा। शुक्रेण। क्रीणामि। चन्द्रम्। चन्द्रेण। अमृतम्। अमृतेन। सग्मे। ते। गोः। अस्मे इत्यस्मे। ते। चन्द्राणि। तपसः। तनूः। असि। प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। वर्णः। परमेण। पशुना। क्रीयसे। सहस्रपोषमिति सहस्रऽपोषम्। पुषेयम्॥२६॥
विषय - मनुष्यों को क्या-क्या साधन करके यज्ञ को सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
मैं (सग्मे) गमनशील पृथिवी के साथ विद्यमान यज्ञ में जो (तपसः) धर्मानुष्ठान अग्नि वा तपस्वी का (तनूः) शरीर (असि) है और जो (पशुना) बेचे हुए गौ आदि पशु से (प्रजापतेः) प्रजा के पालक सूर्य के (वर्णः) वरण करने योग्य होने से ( क्रीयसे) खरीदा जाता है उसको (सहस्रपोषम्) असंख्य पोषण साधनों से पुष्ट करके (पुषेयम्) बलवान् रहूँ ।
हे विद्वान् मनुष्य ! (ते) तेरे लिए जिस (गोः) पृथिवी से (चन्द्राणि) सुवर्ण आदि धातु उत्पन्न हुई हैं वह (अस्मे) हमारे लिए भी हों ।
मैं (परमेण) उत्तम (शुक्रेण) शुद्धभाव से जिस (शुक्रम्) शुद्धि करने वाले यज्ञ को (चन्द्रेण) सोने से (चन्द्रम्) सोने को (अमृतेन) नाशरहित विज्ञान से (अमृतम्) मोक्षसुख को (क्रीणामि) ग्रहण करता हूँ (त्वा) उसे तू भी ग्रहण कर।।४।२६ ।।
भावार्थ - सब मनुष्य शरीर, मन, वाणी और धन से परमेश्वर की उपासना आदि लक्षण युक्त यज्ञ का सदा अनुष्ठान करके असंख्य अतुल पुष्टि प्राप्त करें ।। ४ । २६ ।।
प्रमाणार्थ -
(चन्द्रम्) 'चन्द्र' शब्द निघं० ( १ । २) हिरण्य-(सुवर्ण) नामों में पढ़ा है। (सग्मे) 'ग्मा' शब्द निघं० ( १ । १ ) में पृथिवी नामों में पढ़ा है। (असि) अस्ति। यहाँ पुरुष-व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३ ।३।३। ६-९) में की गई है ।। ४ । २६ ।।
भाष्यसार - क्या करके यज्ञ को सिद्ध करें--शरीर को धर्मानुष्ठान से युक्त करके, इसे अग्नि के समान तेजस्वी और तपस्वी बनाकर, गौ आदि पशुओं के क्रय-विक्रय रूप व्यवहार से सूर्य के वर्ण के समान सुवर्ण आदि धन को प्राप्त करके तथा पृथिवी से उत्पन्न होने वाले काञ्चन (सोना) आदि धातुओं को अपना कर, अत्यन्त शुद्ध भाव से परमेश्वर की उपासना आदि लक्षणों से युक्त यज्ञ का अनुष्ठान करके अतुल पुष्टि को प्राप्त करें। सोने के व्यवहार से सोने को बढ़ावें। अमृत रूप विज्ञान से मोक्ष को प्राप्त करें तथा क्रियामय इस यज्ञ को सिद्ध करें ॥ ४ । २६ ।।
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