यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 36
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - सूर्य्यो देवता
छन्दः - विराट् ब्राह्मी बृहती
स्वरः - मध्यमः
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वरु॑णस्यो॒त्तम्भ॑नमसि॒ वरु॑णस्य स्कम्भ॒सर्ज॑नी स्थो॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न्यसि॒ वरु॑णस्यऽ ऋत॒सद॑नमसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न॒मासी॑द॥३६॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णस्य। उ॒त्तम्भ॑नम्। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। स्क॒म्भ॒सर्ज॑नी॒ऽइति॑ स्कम्भ॒ऽसर्जनी॑। स्थः॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॒नीत्यृ॑तऽसद॑नी। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॑न॒मित्यृ॑त॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॑न॒मित्यृ॑त॒ऽसद॑नम्। आ। सी॒द॒ ॥३६॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद ॥
स्वर रहित पद पाठ
वरुणस्य। उत्तम्भनम्। असि। वरुणस्य। स्कम्भसर्जनीऽइति स्कम्भऽसर्जनी। स्थः। वरुणस्य। ऋतसदनीत्यृतऽसदनी। असि। वरुणस्य। ऋतसदनमित्यृतऽसदनम्। असि। वरुणस्य। ऋतसदनमित्यृतऽसदनम्। आ। सीद॥३६॥
विषय - फिर वे ईश्वर और सूर्य कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।।
भाषार्थ -
हे जगदीश्वर ! जिससे आप (वरुणस्य) वरण=प्राप्त करने योग्य श्रेष्ठ जगत् को (उत्तम्भनम्) अच्छे प्रकार बाँधने वाले (असि) हो और (वरुणस्य) वायु की (स्कम्भसर्जनी) स्कम्भन=धारण शक्ति को उत्पन्न करने वाली क्रिया और जो (वरुणस्य) सूर्य के पास (ऋतसदुनी) ऋत अर्थात् जल पहुँचाने और वहाँ से वापिस लाने की जो क्रियायें (स्थ:) हैं उनको धारण करते हो।
जो (वरुणस्य) उत्तम पदार्थों तथा (ऋतसदनम्) यथार्थ-पदार्थों का स्थान [असि] है उसे कृपा करके (वरुणस्य) उत्कृष्ट गुणों के (ऋतसदनम्) सत्यज्ञानों का स्थान है उसे (आसीद) सब ओर से प्राप्त कराते हो, इसलिये हम आप का आश्रय लेते हैं । यह मन्त्र का पहला अर्थ है ।
[सूर्य]
जो (वरुणस्य) वरुण=प्राप्त करने योग्य श्रेष्ठ जगत् के (उत्तम्भनम्) उत्कृष्ट बन्धन को धारण करता है और जो (वरुणस्य) वायु की (स्कम्भसर्जनी) स्कम्भन=धारण-शक्ति को उत्पन्न करने वाली क्रिया और (वरुणस्य) सूर्य के पास (ऋतसदनी) जल का गमन-आगमन कराने वाली क्रिया, (स्थः) हैं, जो उन क्रियाओं को धारण करने वाला सूर्य है जो कि (वरुणस्य) उत्तम पदार्थों का (ऋतसदनम्) यथार्थ घर [असि] है और जो (वरुणस्य) उत्तम गुणों के (ऋतसदनम्) यथार्थ ज्ञानों का स्थान है उसे (आसीद) सब ओर से प्राप्त कराता है, उस सूर्य का उपयोग क्यों न किया जाये । [यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है] ।। ४ । ३६ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ।। परमेश्वर के बिना सब जगत् की रचना, धारण, पालन और पूर्ण ज्ञान कोई नहीं कर सकता । और--यह निश्चय है कि कोई सूर्य के बिना सब भूमि आदि जगत् को प्रकाशित वा धारण नहीं कर सकता। इसलिये--सब मनुष्य ईश्वर की उपासना और सूर्य का उपयोग यथावत् किया करें ।। ४ । ३६ ।।
प्रमाणार्थ -
(वरुणस्य) 'वरुण' शब्द निघं० (५ । ४) में पद नामों में पढ़ा है। (उत्तम्भनम् ) यहाँ 'उदः स्थास्तम्भो: पूर्वस्य’ (अ० ८ । ४ । ६१) सूत्र से सकार को पूर्वसवर्ण आदेश है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ३ । ४ । २५-२९) में की गई है ।। ४ । ३६ ।।
भाष्यसार - १. ईश्वर कैसा है--जगदीश्वर श्रेष्ठ जगत् का उत्तम रचयिता है । यह वायु की स्कम्भसर्जनी और सूर्य की ऋतसदनी नामक क्रियाओं को धारण करने वाला है और जो उत्तम पदार्थों का स्थान है उसे कृपा करके प्राप्त कराता है और जो उत्तम गुणों का सच्चा बोधस्थान है उसे भी वही प्राप्त कराता है। इसलिये ईश्वर के बिना सब जगत् की रचना, इसका धारण, पालन तथा पूर्ण ज्ञान कोई भी नहीं कर सकता। अतः ईश्वर सबका उपास्य है। २. सूर्य कैसा है—सूर्य श्रेष्ठ जगत् का उत्कृष्ट प्रतिबन्धक है। यह वायु की स्कम्भसर्जनी तथा अपनी ऋतसदनी नामक क्रियाओं को धारण करने वाला है। यह उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराता है तथा उत्तम गुणों के सच्चे बोधस्थान को प्राप्त कराता है। इसलिये सूर्य के बिना कोई भी भूमि आदि जगत् को प्रकाशित नहीं कर सकता और न ही धारण कर सकता है। अतः सूर्य सब मनुष्यों के लिए उपयोग के योग्य है । ३. अलङ्कार-- इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार से ईश्वर और सूर्य अर्थ का ग्रहण किया है ।। ४ । ३६ ।।
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