यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 33
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - सूर्य्यविद्वांसौ देवते
छन्दः - निचृत् आर्षी गायत्री,याजुषी जगती
स्वरः - षड्जः, निषादः
1
उस्रा॒वेतं॑ धूर्षाहौ यु॒ज्येथा॑मन॒श्रूऽअवी॑रहणौ ब्रह्म॒चोद॑नौ। स्व॒स्ति यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छतम्॥३३॥
स्वर सहित पद पाठउस्रौ॑। आ। इ॒त॒म्। धू॒र्षा॒हौ॒। धूः॒स॒हा॒विति॑ धूःऽसहौ। यु॒ज्येथा॑म्। अ॒न॒श्रूऽइत्य॑न॒श्रू। अवी॑रहणौ। अवी॑रहनावित्यवी॑रऽहनौ। ब्र॒ह्म॒चोद॑ना॒विति॑ ब्रह्म॒ऽचोद॑नौ। स्व॒स्ति। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥३३॥
स्वर रहित मन्त्र
उस्रावेतन्धूर्षाहौ युज्येथामनश्रू अवीरहणौ ब्रह्मचोदनौ । स्वस्ति यजमानस्य गृहान्गच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उस्रौ। आ। इतम्। धूर्षाहौ। धूःसहाविति धूःऽसहौ। युज्येथाम्। अनश्रूऽइत्यनश्रू। अवीरहणौ। अवीरहनावित्यवीरऽहनौ। ब्रह्मचोदनाविति ब्रह्मऽचोदनौ। स्वस्ति। यजमानस्य। गृहान्। गच्छतम्॥३३॥
विषय - अब सूर्य और विद्वान् कैसे हैं और उनसे शिल्पविद्या के जानने वाले क्या करें, यह उपदेश किया जाता है।
भाषार्थ -
हे मनुष्यो ! जैसे विद्या और शिल्प को प्राप्त करने के इच्छुक लोग, जिन (ब्रह्मचोदनौ) आत्मा और अन्न के प्रेरक (अनश्रू) अव्यापी (अवीरहणौ) वीरों का हनन न करने वाले (उस्रौ) किरणयुक्त एवं निवास के निमित्त सूर्य और वायु को तथा (धूर्षाहौ) पृथिवी, शरीर और ज्ञान को धारण करने वाले सूर्य और विद्वानों को तथा बैलों को, वृषभ के समान यान-संचालन के लिये (एतम्) प्राप्त करते हैं (युज्येथाम् ) अथवा बैलों को यान में जोड़ते हैं, और (यजमानस्य) धार्मिक मनुष्य के (गृहान्) घरों को (स्वस्ति) सुखपूर्वक (गच्छतम्) प्राप्त कराते हैं, उन्हें तुम लोग युक्ति से सेवन करो ॥ ४ ॥ ३३ ॥
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार हैं। जैसे सूर्य और विद्वान् क्रमशः सबको प्रकाशित, धारण, सहन, युक्त और प्राप्त करके सुख को प्राप्त कराते हैं वैसे ही शिल्प विद्या के सम्पादक विद्वान् के द्वारा यानों में युक्ति से सेवन किये हुये अग्नि और जल सुख से सर्वत्र गमन कराते हैं ।। ४ । ३३ ॥
प्रमाणार्थ -
(उस्रौ) 'उस्रा:' शब्द निघं० (१ । ५ ) में रश्मि-नामों में और निघं० (२ । ११ ) में गौ-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३ । ३ । ४ । १२ ) में की गई है ।। ४ । ३३ ।।
भाष्यसार - १. सूर्य कैसा है--शिल्प के सम्पादक विद्वान् के लिये सूर्य अन्न-प्राप्ति का प्रेरक है, यह अव्यापी अर्थात् सर्वत्र व्यापक नहीं है, वीरों का हनन करने वाला भी नहीं है, रश्मिमान् तथा सब प्राणियों के निवास का हेतु है, पृथिवी और शरीर के धारण-भार को सहन करने वाला है। २. विद्वान् कैसा है--विद्या के अभिलाषी को विद्वान् आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करता है, विद्वान् अव्यापी अर्थात् सर्वत्र व्यापक नहीं होता, वह वीरों का हनन नहीं करता, विद्या की किरणों से युक्त, सूर्य और वायु के समान सब के निवास का हेतु और नाना ज्ञान-विज्ञानों को धारण करने वाला होता है। ३. सूर्य और विद्वान् से शिल्पविद् क्या करें-- शिल्प के इच्छुक लोग वृषभ के समान यान के संचालन के लिये सूर्य (अग्नि) को तथा विद्वान् को भी प्राप्त करें तथा इनके उपयोग से धार्मिक जनों के घरों को यान के द्वारा सुख से प्राप्त करें । ४. अलङ्कार--यहाँ श्लेष अलङ्कार से सूर्य और विद्वान् अर्थ का ग्रहण किया है। मन्त्र में उपमावाचक शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे सूर्य और विद्वान् अपने गुणों से सबको सुख पहुंचाते हैं, इसी प्रकार शिल्पविद्या के सम्पादक लोग यानादि के द्वारा सबको सुख पहुँचायें ।। ४ । ३३ ।।
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