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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 24
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - त्वष्टा देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳ शि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ विद॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो यद्विलि॑ष्टम्॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। वर्च॑सा। पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳕। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँवर्चसा पयसा सन्तनूभिरगन्महि मनसा सँ शिवेन । त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायोनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। वर्चसा। पयसा। सम्। तनूभिः। अगन्महि। मनसा। सम्। शिवेन। त्वष्टा। सुदत्र इति सुऽदत्रः। वि। दधातु। रायः। अनु। मार्ष्टु। तन्वः। यत्। विलिष्टमिति विऽलिष्टम्॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्र के अनुसार राक्षसी वृत्तियों को दूर भगाने पर मनुष्य यह प्रार्थना कर सकता है कि हम ( वर्चसा ) = रोग-कृमियों के साथ सफलता से संघर्ष कर सकनेवाली वर्चस् शक्ति से ( समगन्महि ) = सङ्गत हों। हमारे अन्दर प्राणशक्ति हो। 

    २. ( पयसा ) = एक-एक अङ्ग की शक्ति के आप्यायन से हम सङ्गत हों [ ओप्यायी वृद्धौ ]। 

    ३. ( तनूभिः ) = [ तन् विस्तारे ] शक्तियों के विस्तारवाले शरीरों से ( समगन्महि ) = हम युक्त हों, और —

    ४. इन सबसे बढ़कर ( शिवेन मनसा ) = शिव सङ्कल्पवाले मन से ( सम् ) = सङ्गत हों। राक्षसी वृत्तियों के दूर करने से प्राणशक्ति की रक्षा होकर सब अङ्गों का आप्यायन होता है, सब अङ्गों का विस्तार होकर शरीर सचमुच ‘तनू’ इस सार्थक नामवाला होता है और मन शिवसंकल्पों से युक्त हो जाता है। 

    ५. ( त्वष्टा ) = हम सबके रूपों को सुन्दर बनानेवाला [ त्वष्टा रूपाणि पिंशतु—ऋ १०।१८४।१ ] देवशिल्पी ( सु-द-त्रः ) = उत्तमोत्तम साधन व शक्तियाँ प्राप्त कराके हमारा त्राण करनेवाला प्रभु हमें ( रायः ) = [ रा दाने ] दान दिये जानेवाले धनों को ( विदधातु ) = दे। हमें वे धन प्राप्त हों, जिनसे हम ‘कु-बेर’ [ कुत्सित शरीरवाले ] न बन जाएँ। हमें वे धन प्राप्त हों जिन्हें प्राप्त करके हम विलासमग्न होकर निधन = मृत्यु की ओर न चले जाएँ। प्रभु सुदत्र हैं, वे निकृष्ट धन क्यों देंगे ? 

    ६. वे प्रभु कृपा करके ( तन्वः ) = हमारे शरीरों की ( यत् ) = जो भी ( विलिष्टम् ) = विशेष अल्पता-न्यूनता है [ लिश् अल्पीभावे ] उसे ( अनुमार्ष्टु ) = दूर करें, उसका शोधन कर डालें। न्यूनताओं से दूर होकर हमारे शरीर सुन्दर-ही-सुन्दर हों।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम वर्चस्, आप्यायन, शक्ति-विस्तार व शिव मन से सङ्गत हों। धन का दान देनेवाले हों और अपनी न्यूनताओं का शोधन करें।

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