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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 30
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    ये रू॒पाणि॑ प्रतिमु॒ञ्चमा॑ना॒ऽअसु॑राः॒ सन्तः॑ स्व॒धया॒ चर॑न्ति। प॒रा॒पुरो॑ नि॒पुरो॒ ये भर॑न्त्य॒ग्निष्टाँल्लो॒कात् प्रणु॑दात्य॒स्मात्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। रू॒पाणि॑। प्र॒ति॒मु॒ञ्चमा॑ना॒ इति॑ प्रतिऽमुञ्चमा॑नाः। असु॑राः। सन्तः॑। स्व॒धया॑। चर॑न्ति। प॒रा॒पुर॒ इति॑ परा॒ऽपुरः॑। नि॒ऽपुर॒ इति॑ नि॒पुरः॑। ये। भर॑न्ति। अ॒ग्निः। तान्। लो॒कात्। प्र। नु॒दा॒ति॒। अ॒स्मात् ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमानाऽअसुराः सन्तः स्वधया चरन्ति । परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टान्लोकात्प्र णुदात्यस्मात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। रूपाणि। प्रतिमुञ्चमाना इति प्रतिऽमुञ्चमानाः। असुराः। सन्तः। स्वधया। चरन्ति। परापुर इति पराऽपुरः। निऽपुर इति निपुरः। ये। भरन्ति। अग्निः। तान्। लोकात्। प्र। नुदाति। अस्मात्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 30
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    पदार्थ -

    ‘गत मन्त्र’ में वर्णित पितृयज्ञ को जो युवक अपने जीवन में कोई स्थान नहीं देते उनका जीवन क्या विचित्र बन जाता है’—यह वर्णन प्रस्तुत मन्त्र में है—

    १. ( ये ) = जो ( रूपाणि ) = सुन्दर आकृतियों को ( प्रतिमुञ्चमानाः ) = धारण करते हुए, अर्थात् सुन्दर वेष-भूषाओं में अपने को सजाते हुए ( चरन्ति ) = सर्वत्र विचरते हैं [ बाज़ारों, क्लबों और सिनेमागृहों में घूमते हैं ]। 

    २. ( असुराः सन्तः ) = [ असुषु रमन्ते ] जो अपने ही प्राणों में रमण करते हुए; जीवन का आनन्द लूटते हुए ( चरन्ति ) = मौज से घूमते हैं, अपने आदरणीय पुरुषों के आराम का तनिक भी ध्यान नहीं करते 

    ३. जो ( स्वधया ) = [ स्वधा = अन्न ] अन्न के हेतु से ही ( चरन्ति ) = अपने इस जीवन में चलते हैं, अर्थात् उनका जीवनोद्देश्य ‘खाना-पीना’ ही रह जाता है। वे खाने-पीने के लिए ही जीते हैं। 

    ४. ( परापुरः ) = [ परागतानि स्वसुखार्थानि अधर्मकार्याणि पिपुरति—द० ] संसार से उलटे, अर्थात् लोक-विद्विष्ट अपने ही सुखकारी अधर्मकार्यों को सिद्ध करते हैं। ( निपुरः ) = [ निकृष्टान् दुष्टस्वभावान् पिपुरति ] दुष्ट-स्वभावों को परिपूर्ण करनेवाले ( ये ) = जो लोग ( भरन्ति ) = अन्याय से औरों के पदार्थों को धारण करते हैं [ अन्यायेनार्थसंचयान्—गीता ]। 

    ५. ( अग्निः ) = वह संसार का सञ्चालक प्रभु ( तान् ) = उल्लिखित वृत्तिवाले असुर लोगों को ( अस्मात् ) = इस ( लोकात् ) = लोक से ( प्रणुदाति ) = दूर करता है।

    आसुर वृत्तिवाले लोग समाज के लिए बड़े अवाञ्छनीय होते हैं। राजा को चाहिए कि ऐसे लोगों को राष्ट्र से निर्वासित कर दे। या मनुष्य प्रभु से प्रार्थना करता है कि प्रभो! इनको आप अपने पास ही बुला लीजिए, इनसे हमारा पीछा छुड़ाइए।

    भावार्थ -

    भावार्थ — आसुर जीवन के लक्षण हैं— १. छैल-छबीले बनकर घूमना [ रूपाणि प्रतिमुञ्चमानाः ], २. अपनी ही मौज को महत्त्व देना [ असुरः ], ३. जीवन का उद्देश्य भोग समझना [ स्वधया ], ४. पराये माल से अपने को पुर करना [ परापुरः ], ५. निकृष्ट साधनों से अपने खजाने को भरना [ निपुरः ]। हम ऐसे बनकर प्रभु के क्रोध के पात्र न बनें।

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