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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 31
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    अत्र॑ पितरो मादयध्वं यथाभा॒गमावृ॑षायध्वम्। अमी॑मदन्त पि॒तरो॑ यथाभा॒गमावृ॑षायिषत॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑। पि॒त॒रः॒। मा॒द॒य॒ध्व॒म्। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। वृ॒षा॒य॒ध्व॒म्। वृ॒षा॒य॒ध्व॒मिति॑ वृषऽयध्वम्। अमी॑मदन्त। पि॒तरः॑। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। अ॒वृ॒षा॒यि॒ष॒त॒ ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्र पितरो मादयध्वँयथाभागमा वृषायध्वम् । अमीमदन्त पितरो यथाभागमा वृषायिषत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र। पितरः। मादयध्वम्। यथाभागमिति यथाऽभागम्। आ। वृषायध्वम्। वृषायध्वमिति वृषऽयध्वम्। अमीमदन्त। पितरः। यथाभागमिति यथाऽभागम्। आ। अवृषायिषत॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 31
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    पदार्थ -

    जो युवक व युवति आसुर वृत्ति के नहीं होते वे अपने माता-पिता से यही प्रार्थना करते हैं कि ( पितरः ) = उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले पितरो! ( अत्र ) = आप यहाँ ही—घर में ही ( मादयध्वम् ) = हर्षपूर्वक निवास करो। ( गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः ) = घर में रहते हुए भी पाँचों इन्द्रियों का निग्रहरूप तप किया जा सकता है, उसके लिए वनस्थ होने की क्या आवश्यकता ? घर की सब उलझनों को हमारे कन्धों पर डालकर आप यहाँ अपने जीवन को आनन्दयुक्त कीजिए। प्रभु-भजन की मस्ती का आनन्द आप यहाँ भी ले-सकते हैं। यहाँ रहते हुए आप ( यथाभागम् ) = भाग के अनुसार, अर्थात् समय-समय पर सेवन के योग्य ( आवृषायध्वम् ) = विद्या और धर्म की शिक्षा की वर्षा करनेवाले होओ। आज से पहले भी ( पितरः ) = पितर लोग ( अमीमदन्त ) = घर पर ही आनन्द से रहनेवाले हुए हैं और उन्होंने ( यथाभागम् ) = यथासमय ( आवृषायिषत ) = स्थूल व सूक्ष्म विद्या तथा धर्म के उपदेश की वर्षा की है—धर्मज्ञान से हम सन्तानों को सिक्त किया है। हम किसी अभूतपूर्व बात के लिए आपसे प्रार्थना नहीं कर रहे हैं। आपके ज्ञानोपदेश से हमारा मार्ग भी सदा प्रकाशमय बना रहेगा।

    भावार्थ -

    भावार्थ — ‘हे मान्या माता व पिताजी! आप घर पर ही सानन्द रहिए व समय-समय पर हमें सुसम्मति देते रहिए’ यह है पितृभक्त सन्तानों की प्रार्थना। ऐसी सन्तान ही सच्चा पितृयज्ञ करनेवाली होती है।

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