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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - सर्वस्याग्निः छन्दः - निचृत् पङ्क्ति,गायत्री, स्वरः - पञ्चमः , षड्जः
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    अग्ने॑ गृहपते सुगृहप॒तिस्त्वया॑ऽग्ने॒ऽहं गृ॒हप॑तिना भूयासꣳ सुगृहप॒तिस्त्वं मया॑ऽग्ने गृ॒हप॑तिना भूयाः। अ॒स्थू॒रि णौ॒ गार्ह॑पत्यानि सन्तु श॒तꣳ हिमाः॒ सूर्य्य॑स्या॒वृत॒मन्वाव॑र्ते॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। गृ॒ह॒प॒त॒ इति॑ गृहऽपते। सु॒गृ॒ह॒प॒तिरिति॑ सुऽगृहप॒तिः। त्वया॑। अ॒ग्ने॒। अ॒हम्। गृ॒हप॑ति॒नेति॑ गृ॒हऽप॑तिना। भू॒या॒स॒म्। सु॒गृ॒ह॒प॒तिरिति॑ सुऽगृहप॒तिः। त्वम्। मया॑। अ॒ग्ने॒। गृ॒हप॑ति॒नेति॑ गृ॒हऽप॑तिना। भू॒याः॒। अ॒स्थू॒रि। नौ॒। गार्ह॑पत्या॒नीति॒ गार्ह॑ऽपत्यानि। स॒न्तु॒। श॒तम्। हिमाः॑। सूर्य्य॒स्य। आ॒वृत॒मित्या॒ऽवृत॑म्। अनु॑। आ। व॒र्त्ते॒ ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने गृहपते सुगृहपतिस्त्वयाग्ने हङ्गृहपतिना भूयासँ सुगृहपतिस्त्वम्मयाग्ने गृहपतिना भूयाः । अस्थूरि णौ गार्हपत्यानि सन्तु शतँ हिमाः सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। गृहपत इति गृहऽपते। सुगृहपतिरिति सुऽगृहपतिः। त्वया। अग्ने। अहम्। गृहपतिनेति गृहऽपतिना। भूयासम्। सुगृहपतिरिति सुऽगृहपतिः। त्वम्। मया। अग्ने। गृहपतिनेति गृहऽपतिना। भूयाः। अस्थूरि। नौ। गार्हपत्यानीति गार्हऽपत्यानि। सन्तु। शतम्। हिमाः। सूर्य्यस्य। आवृतमित्याऽवृतम्। अनु। आ। वर्त्ते॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र की भावना के अनुसार [ क ] जब हमारी आवश्कताएँ कम होंगी, [ ख ] हम प्रकाशमय नियमित जीवनवाले होंगे, [ ग ] सशक्त होंगे [ घ ] सूर्य की भाँति दैनिक आवर्तन को पूरा करेंगे तब हम प्रस्तुत मन्त्र के ‘सु-गृहपति’ बन जाएँगे। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि— 

    २. ( अग्ने ) = हमारी सब उन्नतियों के साधक हे प्रभो ! ( गृहपते ) = हमारे घरों के रक्षक! ( अग्ने ) = प्रकाशस्वरूप प्रभो! ( त्वया सुगृहपतिना ) = सुगृहपति आपके साथ सदा अपना सम्पर्क रखता हुआ मैं ( सु-गृहपतिः ) = उत्तम गृहपति ( भूयासम् ) = बन जाऊँ। आपकी आँख से ओझल न होने पर मैं कभी-मार्ग-भ्रष्ट न होऊँगा। अपने गृहस्थ के कर्त्तव्यों को, आपसे शक्ति प्राप्त करके मैं उत्तमता से निभानेवाला बनूँगा। 

    ३. ( अग्ने ) = उन्नतिसाधक प्रभो ! ( मया गृहपतिना ) = मुझ गृहपति से ( त्वम् ) = आप ( सुगृहपतिः ) = उत्तम गृहपतिवाले ( भूयाः ) = होओ। जैसे अच्छे शिष्यों से आचार्य ‘उत्तम शिष्योंवाला’ कहलाता है, इसी प्रकार मुझ आपके उपासक के द्वारा आप ‘उत्तम गृहपति’ कहे जाएँ। मैं आपको यशस्वी व स्तुत्य करने के लिए ‘सुगृहपति’ बनूँ।

    ४. हे प्रभोः! पति-पत्नी हम दोनों के ( गार्हपत्यानि ) = गृहपति के कर्त्तव्य ( अस्थूरि सन्तु ) = एक बैलवाली गाड़ी के समान न हो जाएँ। [ स्थूरि = जिसका एक बैल रह गया हो ऐसी गाड़ी ], अर्थात् अपने इस गृहस्थ-शकट को हम दोनों पति-पत्नी मिलकर बड़ी अच्छी प्रकार वहन करनेवाले बनें। हमारा साथ बना रहे—अपमृत्यु से हममें से किसी एक को ही यह गाड़ी न खेंचनी पडे़। 

    ५. मैं ( शतं हिमाः ) = सौ वर्षपर्यन्त ( सूर्यस्य ) = सूर्य के ( आवृतम् ) = आवर्तन के अनुसार ( आवर्ते ) = अपने दैनिक कार्यक्रम के आवर्तन को चलानेवाला बनूँ। वस्तुतः यह ‘नियमित आवर्तन’ ही सुगृहपति बनने का सर्वोत्तम साधन है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभु को कभी न भुलाता हुआ मनुष्य सुगृहपति बने, पति-पत्नी मिलकर गृहस्थ की गाड़ी को खेंचनेवाले और सदा सूर्य की भाँति नियमित जीवनवाले हों।

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