यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 24
ऋषिः - अश्वतराश्विर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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अ॒भ्याद॑धामि स॒मिध॒मग्ने॑ व्रतपते॒ त्वयि॑।व्र॒तं च॑ श्र॒द्धां चोपै॑मी॒न्धे त्वा॑ दीक्षि॒तोऽअ॒हम्॥२४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि। आ। द॒धा॒मि॒। स॒मिध॒मिति॑ स॒म्ऽइध॑म्। अग्ने॑। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। त्वयि॑। व्र॒तम्। च॒। श्र॒द्धाम्। च॒। उप॑। ए॒मि॒। इ॒न्धे। त्वा॒। दी॒क्षि॒तः। अ॒हम् ॥२४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यादधामि समिधमग्ने व्रतपते त्वयि । व्रतञ्च श्रद्धाञ्चोपैमीन्धे त्वा दीक्षितोऽअहम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि। आ। दधामि। समिधमिति सम्ऽइधम्। अग्ने। व्रतपत इति व्रतऽपते। त्वयि। व्रतम्। च। श्रद्धाम्। च। उप। एमि। इन्धे। त्वा। दीक्षितः। अहम्॥२४॥
विषय - प्रजापति के अधीन व्रतोपायन और दीक्षाग्रहण ।गुरु-शिष्य सम्बन्ध का विवरण ।
भावार्थ -
हे ( व्रतपते अग्ने ) व्रतों और सत्य कर्मों के पालक अग्ने ! तेजस्विन्!( र्त्वाय) अग्नि में समिधा के समान तुझ में (समिधम् ) प्रदीप्ठ हो जाने में समर्थ अपने आपको मैं (अभि आदधामि) तेरे समक्ष शिष्य-- रूप से स्थापित करता हूँ और (व्रतं च ) व्रत और (श्रद्धां च) सत्य धारकः बुद्धि को (उप- एमि) प्राप्त होता हूँ और ( अहम् ) मैं (दीक्षितः) दीक्षित होकर (त्वा इन्धे) तुझे भी प्रज्ज्वलित करता हूँ । अग्नि में जल के अग्नि को भी प्रदीप्त करता है उसी प्रकार शिष्य व्रत और विद्या से प्रदीप्त होकर गुरु के यश का कारण हो । वीरगण अपने नायक रूप अग्नि में काष्ट के समान अपने को समर्पित करें, उसी पर विश्वास रख कर आज्ञा पालन - करते हुए पराक्रम करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्वतराश्विर्ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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