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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 58
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    आ॒जुह्वा॑ना॒ सर॑स्व॒तीन्द्रा॑येन्द्रि॒याणि॑ वी॒र्यम्।इडा॑भिर॒श्विना॒विष॒ꣳ समूर्ज॒ꣳ सꣳ र॒यिं द॑धुः॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒जुह्वा॒नेत्या॒ऽजुह्वा॑ना। सर॑स्वती। इन्द्रा॑य। इ॒न्द्रि॒याणि॑। वी॒र्य᳖म्। इडा॑भिः। अ॒श्विनौ॑। इष॑म्। सम्। ऊर्ज्ज॑म्। सम्। र॒यिम्। द॒धुः॒ ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आजुह्वाना सरस्वतीन्द्रायेन्द्रियाणि वीर्यम् । इडाभिरश्विनाविषँ समूर्जँ सँ रयिं दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आजुह्वानेत्याऽजुह्वाना। सरस्वती। इन्द्राय। इन्द्रियाणि। वीर्यम्। इडाभिः। अश्विनौ। इषम्। सम्। ऊर्ज्जम्। सम्। रयिम्। दधुः॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 58
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    भावार्थ -
    (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् राजा के लिये (इन्द्रियाणि) इन्द्रियों के सामर्थ्यौं और इन्द्रोचित ऐश्वर्यो का और (वीर्यम् ) परम शक्ति, अधिकार ( आजुह्वाना) प्रदान करती हुई ( सरस्वती ) प्रशस्त ज्ञानवती विदुषी के समान विद्वत्सभा और ( अश्विनौ ) ओषधियों से ही अन्न और बल को उत्पन्न करा देने वाले वैद्यों के समान (अश्विनौ) नाना विद्याओं में विख्यात स्त्री और पुरुष या उच्च दो अधिकारी (इडाभिः) नाना प्रकार के अन्नों से (इषम् ) इच्छानुसार अन्न ( ऊर्जम्) बल पराक्रम और ( रयिम् ) ऐश्वर्यं ( सं सं दधुः ) प्रदान करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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