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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 55
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    समि॑द्धोऽअ॒ग्निर॑श्विना त॒प्तो घ॒र्मो वि॒राट् सु॒तः। दु॒हे धे॒नुः सर॑स्वती॒ सोम॑ꣳ शु॒क्रमि॒हेन्द्रि॒यम्॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। अ॒ग्निः। अ॒श्वि॒ना॒। त॒प्तः। घ॒र्मः। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। सु॒तः। दु॒हे। धे॒नुः। सर॑स्वती। सोम॑म्। शु॒क्रम्। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम् ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धोऽअग्निरश्विना तप्तो घर्मा विराट्सुतः । दुहे धेनुः सरस्वती सोमँ शुक्रमिहेन्द्रियम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। अग्निः। अश्विना। तप्तः। घर्मः। विराडिति विऽराट्। सुतः। दुहे। धेनुः। सरस्वती। सोमम्। शुक्रम्। इह। इन्द्रियम्॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 55
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    भावार्थ -
    हे (अश्विनौ) प्रजा के स्त्री-पुरुषो ! (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी राजा (सम् इद्वः) अपने तेज से अति प्रदीप्त (तप्तः) पराक्रम से शत्रुतापी, (धर्मः) आदित्य के समान ( विराट् ) विविध ऐश्वर्यों से तेजस्वी होकर (सुतः) अभिषिक्त है । (सरस्वती) उत्तम ज्ञान से युक्त वेदवाणी के समान विदुषी, विद्वत्सभा ( धेनु) गाय के समान समस्त सार पदार्थों को प्राप्त करने वाली (इह) इस राष्ट्र में (शुक्रम् ) शुद्ध, ( इन्द्रियम् ) इन्द्र, राजा के पद के योग्य ( सोमम् ) समस्त राज्यैश्वर्य को (दुहे) पूर्ण करती है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विदर्भिऋषिः । अश्विनौ सरस्वती इन्द्रश्च देवताः । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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