Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 74
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    4

    ता नास॑त्या सु॒पेश॑सा॒ हिर॑ण्यवर्त्तनी॒ नरा॑।सर॑स्वती ह॒विष्म॒तीन्द्र॒ कर्म॑सु नोऽवत॥७४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता। नास॑त्या। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। हिर॑ण्यवर्त्तनी॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्त्तनी। नरा॑। सर॑स्वती। ह॒विष्म॑ती। इन्द्र॑। कर्म॒स्विति॒ कर्म॑ऽसु। नः॒। अ॒व॒त॒ ॥७४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता नासत्या सुपेशसा हिरण्यवर्तनी नरा । सरस्वती हविष्मतीन्द्र कर्मसु नो वत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ता। नासत्या। सुपेशसेति सुऽपेशसा। हिरण्यवर्त्तनी इति हिरण्यऽवर्त्तनी। नरा। सरस्वती। हविष्मती। इन्द्र। कर्मस्विति कर्मऽसु। नः। अवत॥७४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 74
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    (ता) वे दोनों (नासत्या ) सदा सत्य धर्म में वर्त्तमान, (सुपेशसा ) उत्तम रूप वाले, (हिरण्यवर्त्तनी) सुवर्ण आदि धातुओं के व्यापार-वृत्ति करने वाले, अथवा हितकारी मनोरम मार्ग से जाने वाले ( नरा) नेता और (सरस्वती) विद्वत्सभा (हविष्मती) प्रदान करने योग्य ज्ञान और श्रवण करने योग्य उपायों से सम्पन्न होकर हे (इन्द्र) राजन् ! (नः) हमारे (कर्मसु ) समस्त कार्यों में (अवत ) रक्षा करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृद् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top