यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 63
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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ति॒स्रस्त्रे॒धा सर॑स्वत्य॒श्विना॒ भार॒तीडा॑।ती॒व्रं प॑रि॒स्रुता॒ सोम॒मिन्द्रा॑य सुषुवु॒र्मद॑म्॥६३॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः। त्रे॒धा। सर॑स्वती। अ॒श्विना॑। भार॑ती। इडा॑। ती॒व्रम्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सोम॑म्। इन्द्रा॑य। सु॒षु॒वुः॒। सु॒सु॒वु॒रिति॑ सुसुवुः। मद॑म् ॥६३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रस्त्रेधा सरस्वत्यश्विना भारतीडा । तीव्रम्परिस्रुता सोममिन्द्राय सुषुवुर्मदम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तिस्रः। त्रेधा। सरस्वती। अश्विना। भारती। इडा। तीव्रम्। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। सोमम्। इन्द्राय। सुषुवुः। सुसुवुरिति सुसुवुः। मदम्॥६३॥
विषय - उषा, नक्त, अश्वि, तीन देवियां, सविता, वरुण का इन्द्र पद को पुष्ट करना ।
भावार्थ -
(सरस्वती) सरस्वती, (भारती) भारती, (इडा) इडा ये ( तिस्रः) तीनों और (अश्विनौ) दोनों, सद्-वैद्यों के समान उक्त अधिकारी ( परिस्रुता) अभिषेक द्वारा (इन्द्राय) इन्द्र, राजा के लिये ( तीव्रम् ) तीव्र (मदम् ) आनन्द और हर्षजनक ( सोमम् ) राष्ट्र रूप ऐश्वर्य को (सुषुवुः ) उत्पन्न करते हैं । अथवा ( इन्द्राय) ऐश्वर्यमय राष्ट्र के लिये (मदम् ) हर्षजनक ( तीव्रम् ) तीव्र, तीक्ष्ण स्वभाव के राजा को उत्पन्न करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विराट् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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