Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 5
    ऋषिः - श्यावाश्व ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - भुरिगुत्कृतिः स्वरः - षड्जः
    0

    विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा गा॑य॒त्रं छन्द॒ऽआरो॑ह पृथि॒वीमनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यभिमाति॒हा त्रैष्टु॑भं॒ छन्द॒ऽआरो॑हा॒न्तरि॑क्ष॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यरातीय॒तो ह॒न्ता जाग॑तं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिव॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि शत्रूय॒तो ह॒न्तानु॑ष्टुभं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिशोऽनु॒ विक्र॑मस्व॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। गा॒य॒त्रम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। अ॒भि॒मा॒ति॒हेत्य॑भिमाति॒ऽहा। त्रैष्टु॑भम्। त्रैस्तु॑भ॒मिति॒ त्रैऽस्तु॑भम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। अ॒रा॒ती॒य॒तः। अ॒रा॒ति॒य॒त इत्य॑रातिऽय॒तः। ह॒न्ता। जाग॑तम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। दिव॑म्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। श॒त्रू॒य॒तः। श॒त्रु॒य॒त इति॑ शत्रुऽय॒तः। ह॒न्ता। आनु॑ष्टुभम्। आनु॑स्तुभ॒मित्यानु॑ऽ स्तुभम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। दिशः॑। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोः क्रमो सि सपत्नहा गायत्रञ्छन्दऽआ रोह पृथिवीमनु विक्रमस्व । विष्णोः क्रमो स्यभिमातिहा त्रैष्टुभञ्छन्दऽआरोहान्तरिक्षमनु विक्रमस्व विष्णोः क्रमो स्यरातीयतो हन्ता जागतञ्छन्दऽआ रोह दिवमनु विक्रमस्व विष्णोः क्रमो सि शत्रूयतो हन्तानुष्टुभञ्छन्दऽआ रोह दिशोनु विक्रमस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णोः। क्रमः। असि। सपत्नहेति सपत्नऽहा। गायत्रम्। छन्दः। आ। रोह। पृथिवीम्। अनु। वि। क्रमस्व। विष्णोः। क्रमः। असि। अभिमातिहेत्यभिमातिऽहा। त्रैष्टुभम्। त्रैस्तुभमिति त्रैऽस्तुभम्। छन्दः। आ। रोह। अन्तरिक्षम्। अनु। वि। क्रमस्व। विष्णोः। क्रमः। असि। अरातीयतः। अरातियत इत्यरातिऽयतः। हन्ता। जागतम्। छन्दः। आ। रोह। दिवम्। अनु। वि। क्रमस्व। विष्णोः। क्रमः। असि। शत्रूयतः। शत्रुयत इति शत्रुऽयतः। हन्ता। आनुष्टुभम्। आनुस्तुभमित्यानुऽ स्तुभम्। छन्दः। आ। रोह। दिशः। अनु। वि। क्रमस्व॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे विद्वान (वेदज्ञ) पुरुष, (सभापती) आपण (विष्णो:) व्यापक जगदीश्‍वराच्या (क्रम:) नियमांप्रमाणे आचरण करणारे वा शोधक, तसेच (सपत्नहा) शत्रूंचा वध करणारे (असि) आहात. यामुळे आपण (गायत्रम्‌) गायत्री मंत्राद्वारे व्यक्त होणाऱ्या (छन्द:) शुद्ध अर्थावर (आरोह) आरुढ व्हा (गायत्रीच्या गुढ सत्य अर्थाचे ज्ञान मिळवा) तसेच (पृथिवीम्‌) पृथ्वीवरील पदार्थांपासून (अनुविक्रमस्व) आपल्याकरिता अनुकूल व उपयुक्त व्यवहार (लाभ) प्राप्त करून घ्या. आपण (विष्णो) व्यापक कारणे रुप परमेश्‍वराच्या कार्यरुप सृष्टीमध्ये जे (अभिमातिहा) अभिमानी मनुष्य आहेत (परमेश्‍वर सृष्टीचे कारण असताना जे घमेंडी लोक स्वत:लाच परमेश्‍वर मानतात) त्यांचा (-------) तुम्ही नाश करणारे (असि) आहात. यामुळे आपण (त्रैष्टुमम्‌) तीन प्रकारच्या सुखांनी परिपूर्ण अशा (छन्द:) प्रेरणादायक वेदार्थाचे (ओराह) ग्रहण करा (वेदातील अर्थ शोधून काढा) आणि (अन्तरिक्षम्‌) आकाशाला (अनुविक्रमस्त) आपल्या व्यवहाराकरिता (उपयोगासाठी) अनुकूल करून घ्या. आपण (विष्णो:) व्यापक विद्युतेचे (क्रम:) जाणणारे आहात आणि) (------) जे लोक विद्यादान आदी शुभ कार्यांचा विरोध करणारे आहेत, त्यांचा (---) वध करणारे (असि) आहात. यामुळे आपण (जागतम्‌) सृष्टीचे ज्ञान मिळविण्याचे साधन आणि (छन्द:) सृष्टी-विद्येला जाणण्याचे कारण म्हणजे विज्ञानाद्वारे (दिवम्‌) सूर्य आदी अग्नींचे (अनुविक्रमस्व) क्रमाक्रमाने उपयोग जाणून घ्या. आपण (विष्णो:) हिरण्यगर्भ वायू विषयाचे (क्रम:) ज्ञान सांगणारे असून (राजूयत:) शत्रूप्रमाणे वागणाऱ्या लोकांचा (इन्ता) वध करणारे (असि) आहात, यामुळे आपण (आनुष्टुदायक वेदभागाचे (आरोह) अध्ययन व मनन-चिंतन करून त्यापासून लाभ घ्या आणि (दिश:) पूर्व आदी दिशांना (अनुविक्रमस्व) आपल्या अनुकूल करून घ्या. (वेदज्ञानाद्वारे दूरवरच्या प्रदेशांना प्रभावित करून कीर्ती मिळवा.)

    भावार्थ - भावार्थ - मनुष्यांनी वेदविद्याद्वारा भूगर्भविद्येविषयी, शोध, अविष्करण प्रयोग आदी करून सिद्धांत निश्‍चित करावेत आणि त्यांचा व्यवहारात उपयोग करून रोग व शत्रू यांचा नाश करावा ॥5॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top