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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 19
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - पृथिव्यादयो देवताः छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
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    पृ॒थि॒वी छन्दो॒ऽन्तरि॑क्षं॒ छन्दो॒ द्यौश्छन्दः॒ समा॒श्छन्दो॒ नक्ष॑त्राणि॒ छन्दो॒ वाक् छन्दो॒ मन॒श्छन्दः॑ कृ॒षिश्छन्दो॒ हिर॑ण्यं॒ छन्दो॒ गौश्छन्दो॒ऽजाच्छन्दोऽश्व॒श्छन्दः॑॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒वी। छन्दः॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। छन्दः॑। द्यौः। छन्दः॑। समाः॑। छन्दः॑। नक्ष॑त्राणि। छन्दः॑। वाक्। छन्दः॑। मनः॑। छन्दः॑। कृ॒षिः। छन्दः॑। हिर॑ण्यम्। छन्दः॑। गौः। छन्दः॑। अ॒जा। छन्दः॑। अश्वः॑। छन्दः॑ ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिवीच्छन्दोन्तरिक्षच्छन्दो द्यौश्छन्दः समाश्छन्दो नक्षत्राणि छन्दो वाक्छन्दो मनश्छन्दः कृषिश्छन्दो हिरण्यञ्छन्दो गौश्छन्दोजा च्छन्दः श्वश्छन्दः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिवी। छन्दः। अन्तरिक्षम्। छन्दः। द्यौः। छन्दः। समाः। छन्दः। नक्षत्राणि। छन्दः। वाक्। छन्दः। मनः। छन्दः। कृषिः। छन्दः। हिरण्यम्। छन्दः। गौः। छन्दः। अजा। छन्दः। अश्वः। छन्दः॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -
    १३. (पृथिवी छन्दः) = तुम्हारी इच्छा शरीर को पूर्ण स्वस्थ करने की हो। इसकी शक्तियों का तुम विस्तार करो। १४. (अन्तरिक्षं छन्दः) = हृदयान्तरिक्ष को निर्मल बनाने की कामना करो। इसके अधिपति बनो, मन को वश में करके चलो, सदा मध्यमार्ग को अपनाओ। यह मन तुम्हें अति में ले जानेवाला न हो जाए । १५. द्(यौः छन्दः)- = मस्तिष्करूप द्युलोक की तुम कामना करो। इसे [दिव्= द्युति] प्रकाशमय बनाने के लिए प्रयत्नशील होओ। १६. (समाः छन्दः) = [समायन्ति ऋतवो यस्यां सा समाः] संवत्सर की तुम्हारी कामना हो, जैसे इसमें सब ऋतुएँ समय पर आती हैं, इसी प्रकार तुममें भी सब कर्त्तव्य समय-समय पर आते रहें। तुम अपने सब कार्यों को समय पर करते रहो अथवा (समाः) = काल जैसे सबके लिए सम है, उसी प्रकार तुम भी सबके लिए सम होओ। तुम्हारे व्यवहार में वैषम्य न हो । १७. (नक्षत्राणि छन्दः) = नक्षत्रों के समान [नक्ष गतौ] सदा क्रियाशीलता की भावना तुममें बनी रहे । 'न क्षिणोति हिनस्ति इति' तुम नक्षत्रों से हिंसा न करने का पाठ सीखो। ये कल्याण-ही-कल्याण करते हैं, हिंसा नहीं। तुम भी लोगों को थोड़ा-बहुत प्रकाश देनेवाले होओ। १८. (वाक् छन्दः) = तुम्हारी इच्छा निरन्तर ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करने की हो । १९. (मनः छन्दः) = मन को निरुद्ध करने की और इस प्रकार मानस-बल को बढ़ाने की तुम्हारी इच्छा हो । २०. इस मनो निरोध के लिए तुम (कृषिः छन्दः) = कृषि आदि कार्यों की इच्छा करो । कृषि आदि कार्यों में लगा हुआ मन विषयों में जाने से रुका रहेगा । २१. इस कृषि से प्राप्य (हिरण्यं छन्दः) = धन की तुम कामना करो। कृषि से प्राप्य धन वस्तुतः मनुष्य के लिए बड़ा हितरमणीय है, अतः वस्तुतः यही धन 'हिरण्य' है । २२. (गौ: छन्दः) = वहाँ खेती में गौओं की तुम इच्छा करो [तत्र गाव:] । कृषि करते हुए गौएँ रखने में आर्थिक कष्ट नहीं होता। २३. (अजाः छन्दः) = वहाँ खेती में तू बकरियों को रखने की इच्छा कर तथा २४. (अश्वः छन्दः) = घोड़ों को रखने की तू कामना कर। ये गौ और घोड़े ही तेरे जीवन को उत्कृष्ट बुद्धि व बल से सम्पन्न करेंगे।

    भावार्थ - भावार्थ - यह मन्त्र 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यौ' से प्रारम्भ होता है, शरीर, मन व मस्तिष्क को उत्तम बनाने की कामना हमें करनी ही चाहिए। समाप्ति पर 'गौ-अजा व अश्व' हैं। गौ-दुग्ध हमारे मस्तिष्कों को सुन्दर बनाएगा, अजा दुग्ध हमारे मनों को तथा अश्व हमारे शरीर को सबल बनानेवाले होंगे।

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