यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 2
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - अश्विनौ देवते
छन्दः - निचृद्ब्राह्मी बृहती
स्वरः - मध्यमः
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कु॒ला॒यिनी॑ घृ॒तव॑ती॒ पुर॑न्धिः स्यो॒ने सी॑द॒ सद॑ने पृथि॒व्याः। अ॒भि त्वा॑ रु॒द्रा वस॑वो गृणन्त्वि॒मा ब्रह्म॑ पीपिहि॒ सौभ॑गाया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥२॥
स्वर सहित पद पाठकु॒ला॒यिनी॑। घृ॒तव॒तीति॑ घृ॒तऽव॑ती। पुर॑न्धि॒रिति॒ पुर॑म्ऽधिः। स्यो॒ने। सी॒द॒। सद॑ने। पृ॒थि॒व्याः। अ॒भि। त्वा॒। रु॒द्राः। वस॑वः। गृ॒ण॒न्तु॒। इ॒मा। ब्रह्म॑। पी॒पि॒हि॒। सौभ॑गाय। अ॒श्विना॑। अ॒ध्व॒र्यूऽइत्य॑ध्व॒र्यू। सा॒द॒य॒ता॒म्। इ॒ह। त्वा॒ ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुलायिनी घृतवती पुरंधिः स्योने सीद सदने पृथिव्याः । अभि त्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा ब्रह्म पीपिहि सौभगायाश्विनाध्वर्यू सादयतामिह त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
कुलायिनी। घृतवतीति घृतऽवती। पुरन्धिरिति पुरम्ऽधिः। स्योने। सीद। सदने। पृथिव्याः। अभि। त्वा। रुद्राः। वसवः। गृणन्तु। इमा। ब्रह्म। पीपिहि। सौभगाय। अश्विना। अध्वर्यूऽइत्यध्वर्यू। सादयताम्। इह। त्वा॥२॥
विषय - कुलायिनी
पदार्थ -
१. (कुलायिनी) = [कुलायो नीडम् = गृहम् ] तू उत्तम गृहवाली हो। पत्नी ने ही घर को बनाना है- जैसा वह चाहेगी वैसा ही घर वह बना लेगी। ताण्ड्य ब्राह्मण में 'प्रजा' वै 'कुलायम्' [१९।१५ | १ ] सन्तान को कुलाय कहा है-इससे ही कुल आगे बढ़ता है [कुलम् = प्रयते अनेन ] अतः तू (कुलायिनी) = उत्तम प्रजावाली हो। सन्तान के उत्तम होने पर ही घर उत्तम बना रहता है। २. (घृतवती) = तू मलों के क्षरण के द्वारा [घृ-क्षरण ] उत्तम स्वास्थ्यवाली तथा ज्ञान की दीप्तिवाली [घृ-दीप्ति] हो । शरीर में स्वास्थ्य की दीप्ति हो तो मस्तिष्क में ज्ञान की । ३. (पुरन्धि:) = [रूपिणी युवति:- श० १३ । १ ।९।६ ] स्वास्थ्य व ज्ञान को प्राप्त करके तू उत्तम रूपवाली हो। [पुरूणि बहूनि सुखानि दधाति - द०] तू बहुत सुखों को धारण करनेवाली बन। अथवा 'पृ पालनपूरणयो:' पालक व पूरक बुद्धि का धारण करनेवाली तू हो, तुझे घर के पालन व पूरण का ध्यान हो । ४. (पृथिव्या:) = [ प्रथ विस्तारे] विस्तृत हृदयवाली श्वश्रू के (स्योने) = सुखमय (सदने) = घर में सीद - तू बैठ। तेरी सास उदार हृदयवाली हो, छोटी-छोटी बातों में व्यर्थ क्रोध करनेवाली न हो। वास्तव में तो अब तक उसने इस घर का निर्माण किया था अब तू घर की साम्राज्ञी बन [साम्राज्ञी श्वश्वा० ] । ५. (त्वा) = तुझे (वसवः) = प्रारम्भिक शिक्षणालय के अध्यापक उत्तम निवास' की विद्या को (गृणन्तु) = उपदिष्ट करें तथा (रुद्रा:) = उच्च विद्यालय के अध्यापक (त्वा अभिगृणन्तु) = तुझे बाह्य व अन्तः शत्रुओं को रुलाने का उपदेश करें। तुझे वसु प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कराएँ तो रुद्र विद्यालय की उच्च शिक्षा देनेवाले हों। इसके बाद महाविद्यालय में प्राप्त होनेवाली विशेष शिक्षा सद्गृहिणी बनने के लिए उतनी उपयुक्त नहीं, अतः मन्त्र में यहाँ 'आदित्यों' का उल्लेख छोड़ दिया है । ६. (इमा ब्रह्म) = इन ज्ञानों को तू (सौभगाय) = सौन्दर्य के लिए, घर के प्रत्येक कार्य को समझदारी से करने के लिए (पीपिहि) = [ प्राप्नुहि ] प्राप्त हो । (अश्विना) = कार्यों में व्याप्त होनेवाले प्राणापानशक्ति सम्पन्न (अध्वर्यू) = यज्ञशील माता-पिता (त्वा) = तुझे (इह) = इस गृहस्थयज्ञ में (सादयताम्) = स्थापित करें।
भावार्थ - भावार्थ- पत्नी का मौलिक कर्त्तव्य यह है कि वह घर को उत्तम बनाये, स्वयं स्वस्थ व ज्ञान की दीप्तिवाली हो। घर के पालन व पूरण का ध्यान करे। प्राथमिक व विद्यालय की उच्च शिक्षा प्राप्त करके वह अन्तः व बाह्य शत्रुओं को दूर कर सके। ज्ञानपूर्वक कार्य करनेवाली हो, जिससे उसके प्रत्येक कार्य में सौन्दर्य हो ।
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