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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 21
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - विदुषी देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    मू॒र्द्धासि॒ राड् ध्रु॒वासि॑ ध॒रुणा॑ ध॒र्त्र्यसि॒ धर॑णी। आयु॑षे त्वा॒ वर्च॑से त्वा कृ॒ष्यै त्वा॒ क्षेमा॑य त्वा॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्द्धा। अ॒सि॒। राट्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध॒रुणा॑। ध॒र्त्री। अ॒सि॒। धर॑णी। आयु॑षे। त्वा॒। वर्च॑से। त्वा॒। कृ॒ष्यै। त्वा॒। क्षेमा॑य। त्वा॒ ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्धासि राड्धु्रवासि धरुणा धर्त्र्यसि धरणी । आयुषे त्वा वर्चसे त्वा कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्द्धा। असि। राट्। ध्रुवा। असि। धरुणा। धर्त्री। असि। धरणी। आयुषे। त्वा। वर्चसे। त्वा। कृष्यै। त्वा। क्षेमाय। त्वा॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 21
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    पदार्थ -
    १. (मूर्धा असि) = [एष वै मूर्धा य एष सूर्यः तपतिः - श० १३।४।१।१३] तू सूर्य की भाँति ज्ञान की दीप्ति से चमकनेवाली है, और अतएव (राट्) = बड़े व्यवस्थित [regulated] जीवनवाली है। ज्ञान हमारे जीवन को व्यवस्थित कर देता है। प्रभु के ज्ञानमय तप से ऋत और सत्य की उत्पत्ति होती है। हमारे जीवन में भी ज्ञान से इस ऋत और सत्य की उत्पत्ति क्यों न होगी? एवं ज्ञान हमारे जीवनों में व्यवस्था लाता है। उस व्यवस्था के कारण जीवन चमक उठता है [राज् दीप्तौ] २. (ध्रुवा असि) = [ इयं पृथिवी एव ध्रुवा - श० २।३।२।४] तू इस पृथिवी के समान ध्रुवा बनती है, मर्यादा में चलनेवाली होती है। स्तुति-निन्दा, हानि-लाभ व जीवन-मरण के प्रलोभन तुझे नीति मार्ग से विचलित नहीं कर पाते, अतएव तू (धरुणा) = सबका धारण करनेवाली बनती है। ध्रुव पृथिवी जैसे सबका धारण करती है, उसी प्रकार ध्रुव बनकर तू भी सबका धारण करनेवाली होती है । ३. (धर्त्री असि) = [वायुर्वाव. धर्त्रम् - श० ८।४।१ । २६] तू वायु के समान सबके जीवन का धारण करनेवाली है, गति के द्वारा सब बुराइयों का गन्धन - हिंसन करनेवाली है [वा गतिगन्धनयो: ], अतएव (धरणी) = स्वास्थ्य के धरण [रक्षण] से दीर्घायुष्य का धारण करनेवाली बनती है। ५. मैं (त्वा) = तेरा सखित्व आयुषे दीर्घजीवन के लिए स्वीकार करता हूँ । (त्वा) = तेरा सखित्व वर्चसे वर्चस के लिए होता है। (कृष्यै त्वा) = मैं तेरा सखा बनता हूँ, जिससे हम मिलकर अपने इस कृषिकर्म को उन्नत कर पाएँ और इस प्रकार (क्षेमाय त्वा) = मैं तुझे योगक्षेम के साधन के लिए अपनाता हूँ। वस्तुत: आदर्श जीवन वही है जिसमें लोग श्रमपूर्वक योगक्षेम को सिद्ध करते हैं और इस प्रकार अपने जीवन को दीर्घ व शक्तिशाली बना पाते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - गृहपत्नी ज्ञान द्वारा सूर्य की भाँति चमके, पृथिवी के समान धारण करनेवाली हो और वायु के समान शरीर के स्वास्थ्य को सुरक्षित करनेवाली हो। वायु बनकर आयु का स्थापन करे।

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