यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 5
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - अश्विनौ देवते
छन्दः - स्वराड्ब्राह्मी बृहती
स्वरः - मध्यमः
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अदि॑त्यास्त्वा पृ॒ष्ठे सा॑दयाम्य॒न्तरि॑क्षस्य ध॒र्त्री वि॒ष्टम्भ॑नीं दि॒शामधि॑पत्नीं॒ भुव॑नानाम्। ऊ॒र्मिर्द्र॒प्सोऽअ॒पाम॑सि वि॒श्वक॑र्मा त॒ऽऋषि॑रश्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥५॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑त्याः। त्वा॒। पृ॒ष्ठे। सा॒द॒या॒मि। अ॒न्तरि॑क्षस्य। ध॒र्त्रीम्। वि॒ष्टम्भ॑नीम्। दि॒शाम्। अधि॑पत्नी॒मित्यधि॑ऽपत्नीम्। भुव॑नानाम्। ऊ॒र्मिः। द्र॒प्सः। अ॒पाम्। अ॒सि॒। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। ते॒। ऋषिः॑। अ॒श्विना॑। अ॒ध्व॒र्यूऽइत्य॑ध्व॒र्यू। सा॒द॒य॒ता॒म्। इ॒ह। त्वा॒ ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदित्यास्त्वा पृष्ठे सादयाम्यन्तरिक्षस्य धर्त्रीँविष्टम्भनीन्दिशामधिपत्नीम्भुवनानाम्। उर्मिर्द्रप्सोऽअपामसि विश्वकर्मा तऽऋषिरश्विनाध्वर्यू सादयतामिह त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अदित्याः। त्वा। पृष्ठे। सादयामि। अन्तरिक्षस्य। धर्त्रीम्। विष्टम्भनीम्। दिशाम्। अधिपत्नीमित्यधिऽपत्नीम्। भुवनानाम्। ऊर्मिः। द्रप्सः। अपाम्। असि। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। ते। ऋषिः। अश्विना। अध्वर्यूऽइत्यध्वर्यू। सादयताम्। इह। त्वा॥५॥
विषय - अपाम् ऊर्मिः
पदार्थ -
१ (त्वा) = तुझे (अदित्याः पृष्ठे) = अखण्डता के पृष्ठ पर (सादयामि) = बिठाता हूँ, अर्थात् पूर्ण स्वास्थ्यवाली बनाता हूँ। तेरे स्वास्थ्य का खण्डन नहीं होता। २. (अन्तरिक्षस्य धर्त्रीम्) = तुझे अन्तरिक्ष का धारण करनेवाली बनाता हूँ। 'अन्तरा क्षि' तू सदा मध्यमार्ग पर चलनेवाली है। तू सदा अति को छोड़कर ही चलती है। ३. (दिशां विष्टम्भनीम् )= तू दिशाओं को थामनेवाली है। वेद में दिये गये जीवन निर्देशों को धारण करनेवाली है। ४. (भुवनानाम्) = लोकों की (अधिपत्नीम्) = तू अधिष्ठातृरूपेण रक्षिका है। इस शरीररूप पृथिवीलोक को, हृदयरूप अन्तरिक्षलोक को तथा मस्तिष्करूप द्युलोक को तू अधिष्ठात्री बनकर सुरक्षित रखती है। ५. (अपाम्) = तू प्राणशक्ति व कर्मों की (ऊर्मिः) = तरङ्ग है। तेरे जीवन में कर्मों का उत्साह है और प्राणशक्ति तुझमें तरङ्गित होती है, अतएव (द्रप्सः) = [दृप् हर्ष] तू हर्ष व आनन्द का (पुञ्ज असि) = है। तेरा जीवन नितान्त आनन्दमय व रसमय है । ६. वस्तुत: वह (विश्वकर्मा) = सम्पूर्ण कर्मों का करनेवाला प्रभु ही (ते) = तेरा (ऋषि:) = द्रष्टा है। उल्लिखित सुन्दर जीवन के कारण तू प्रभु की रक्षा का पात्र हुई है। ७. (अश्विनौ) = कर्म व्याप्तिवाले (अध्वर्यू) = यज्ञमय जीवनवाले माता-पिता तुझे (इह) = यहाँ (सादयताम्) = बिठाएँ, तुझे गृहस्थ में प्रविष्ट करानेवाले हों।
भावार्थ - भावार्थ- पत्नी का जीवन स्वास्थ्य सम्पन्न हो। यह मध्यमार्ग में चलनेवाली हो, वेद के आदेशों को ग्रहण करनेवाली, शरीर, हृदय व मस्तिष्करूप लोकों को धारण करनेवाली, कर्मों में उत्साह के कारण आनन्दमय जीवनवाली हो। प्रभु का इसपर अनुग्रह हो ।
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