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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः
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    वाज॑श्च मे प्रस॒वश्च॑ मे॒ प्रय॑तिश्च मे॒ प्रसि॑तिश्च मे धी॒तिश्च॑ मे॒ क्रतु॑श्च मे॒ स्व॑रश्च मे॒ श्लोक॑श्च मे॒ श्र॒वश्च॑ मे॒ श्रुति॑श्च मे॒ ज्योति॑श्च मे॒ स्वश्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाजः॑। च॒। मे॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। च॒। मे॒। प्रय॑ति॒रिति॒ प्रऽय॑तिः। च॒। मे॒। प्रसि॑ति॒रिति॒ प्रऽसि॑तिः। च॒। मे॒। धी॒तिः। च॒। मे॒। क्रतुः॑। च॒। मे॒। स्वरः॑। च॒। मे॒। श्लोकः॑। च॒। मे॒। श्र॒वः। च॒। मे॒। श्रुतिः॑। च॒। मे॒। ज्योतिः॑। च॒। मे॒। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। कल्प॒न्ताम् ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजश्च मे प्रसवश्च मे प्रयतिश्च मे प्रसितिश्च मे धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे श्लोकश्च मे श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाजः। च। मे। प्रसव इति प्रऽसवः। च। मे। प्रयतिरिति प्रऽयतिः। च। मे। प्रसितिरिति प्रऽसितिः। च। मे। धीतिः। च। मे। क्रतुः। च। मे। स्वरः। च। मे। श्लोकः। च। मे। श्रवः। च। मे। श्रुतिः। च। मे। ज्योतिः। च। मे। स्वरिति स्वः। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    १. पिछले अध्याय की समाप्ति के मन्त्रों का देवता 'यज्ञपुरुष'- यज्ञशील पुरुष था । यह प्रस्तुत मन्त्रों में यज्ञ के द्वारा पदार्थ की सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करता है और कहता है कि (वाजश्च मे) = शक्ति मुझे यज्ञ के द्वारा प्राप्त हो । शक्ति के साथ (प्रसवश्च मे) = [सु= ऐश्वर्य] ऐश्वर्य भी मुझे प्राप्त हो। केवल ऐश्वर्य कुबेर के पास है और शक्ति 'यमराज' के पास है। मैं अपने में शक्ति व ऐश्वर्य का समन्वय कर पाऊँ। २. [क] इस ऐश्वर्य को कमाने के लिए प्रयतिश्च मे मुझमें प्रकृष्ट पुरुषार्थ हो, यह पुरुषार्थ मुझे शक्ति सम्पन्न करेगा। मैं पुरुषार्थ से ही धन कमाऊँ, जुए की ओर मेरा झुकाव न हो। 'अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व=' पासों से न खेल खेती कर'। 'प्रबन्ध' सातत्यवाला हो, यह वेद का उपदेश मुझे स्मरण रहे। (प्रसितिश्च मे) = [षिञ् बन्धने] मेरा यह प्रयत्न निरन्तर चलता जाए। मैं प्रयत्न में शैथिल्य न आने दूँ। [ख] इस मन्त्रभाग का अर्थ यह भी कर सकते हैं कि ऐश्वर्य व शक्ति होने पर मैं कहीं विलास व आराम के मार्ग पर न चला जाऊँ। मेरा जीवन (प्रयतिः) = प्रकृष्ट संयमवाला हो और उस संयम में (प्रसितिः) = मैं अपने को उत्तम व्रतों के बन्धनों में बाँधकर चलूँ। ३. इन्हीं नियमों में न फँस जाने के उद्देश्य से ही धीतिश्च में मुझमें प्रभु- सम्पर्क द्वारा [यज्ञ द्वारा ] ध्यान की वृद्धि हो तथा क्रतुश्च मे मुझमें ज्ञान की वृद्धि हो। मेरा जीवन ध्यानमय और ज्ञानमय हो। ४. ध्यान व ज्ञान के द्वारा (स्वरश्च मे) = [स्वयं राजते इति स्वर:, स्व + राज्+ड] मुझमें स्वयं राजमानता हो, अर्थात् मैं इन्द्रियों के वशीभूत होकर जीवन न बिताऊँ, और श्लोकश्च मे मुझे यश ही यश प्राप्त हो, इन्द्रियों का दास बनकर ही मैं अपयश का भागी होता हूँ। ५. (श्रवश्च मे) = मुझमें श्रवण का सामर्थ्य हो और उस श्रवण - सामर्थ्य से ज्ञान को बढ़ाते हुए (श्रुतिश्च मे) = मैं वेद को अपना बना पाऊँ। यह ज्ञान ही तो मेरे 'स्वर' बनने में व स्वर बनकर यशस्वी बनाने में सहायक होगा। ६. इस वेदज्ञान को अपनाने से (ज्योतिश्च मे) = मुझे प्रकाश प्राप्त होगा और उस प्रकाश में मार्ग-भ्रष्ट न होने से (स्वश्च मे) = मुझे सुख प्राप्त हो अथवा मैं उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति परमात्मा को पानेवाला बनूँगा ।

    भावार्थ - भावार्थ-यज्ञेन - प्रभु- सम्पर्क द्वारा यज्ञ (मे) = मेरे लिए (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हों।

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