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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 41
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - वातो देवता छन्दः - ब्राह्म्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    इ॒षि॒रो वि॒श्वव्य॑चा॒ वातो॑ गन्ध॒र्वस्तस्यापो॑ऽअप्स॒रस॒ऽऊर्जो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒षि॒रः। वि॒श्वव्य॑चाः। वातः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। आपः॑। अ॒प्स॒रसः॑। ऊर्जः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्वस्तस्यपोऽअप्सरसऽऊर्जा नाम । स नऽइदम्ब्रह्म क्षत्रम्पातु तस्मै स्वाहा वाट्ताभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इषिरः। विश्वव्यचाः। वातः। गन्धर्वः। तस्य। आपः। अप्सरसः। ऊर्जः। नाम। सः। नः। इदम्। ब्रह्म। क्षत्रम्। पातु। तस्मै। स्वाहा। वाट्। ताभ्यः। स्वाहा॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 41
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    पदार्थ -
    १. यह सम्राट् (इषिर:) = [क्षिप्रः इष गतौ ] शीघ्रता से गतिवाला होता है। अपने सब कार्यों को निरालस्यता से करनेवाला होता है। २. (विश्वव्यचा) = [विश्वस्मिन् व्यचो गमनं यस्य] सारे राष्ट्र में निरीक्षण के लिए जानेवाला होता है। ३. (वातः) = वायु के समान निरन्तर गतिवाला होता है। गति के द्वारा सारी बुराइयों का उच्छेदन करनेवाला होता है। ४. (गन्धर्वः) = इस गतिशीलता से वेदज्ञान का धारण करनेवाला बनता है और उस वेदज्ञान के अनुसार ही राष्ट्र का धारण करता है। ५ (तस्य) = उस सम्राट् के (अप्सरसः) = प्रजाओं में विचरण करनेवाले अध्यक्ष लोग भी (आपः) = [आप् व्याप्तौ] जलों की भाँति व्यापक व शान्त गतिवाले होते हैं (ऊर्जः नाम) = ये प्रजा के बल व प्राणशक्ति को बढ़ानेवाले होते हैं। ६. (सः) = वह सम्राट् (नः) = हमारे (इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु) = ज्ञान व बल को बढ़ाए। ७. (तस्मै स्वाहा) = उसके लिए हम कर दें। ८. (वाट्) = राजा उस कर को फिर से प्रजाओं का पालन करने के लिए प्राप्त कराता है। ९. (ताभ्यः स्वाहा) = उन अध्यक्षों के लिए भी हम अपने आराम को छोड़कर उनके कार्यों में सहायक बनें।

    भावार्थ - भावार्थ - राजा गतिशील, क्रियाशील हो। अध्यक्ष क्रियाशील हों। प्रजा को भी क्रियाशील बनाकर बल व प्राणशक्ति सम्पन्न करें।

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