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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 2
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरितिजगती स्वरः - निषादः
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    प्रा॒णश्च॑ मेऽपा॒नश्च॑ मे व्या॒नश्च॒ मेऽसु॑श्च मे चि॒त्तं च॑ म॒ऽआधी॑तं च मे॒ वाक् च॑ मे॒ मन॑श्च मे॒ चक्षु॑श्च मे॒ श्रोत्रं॑ च मे॒ दक्ष॑श्च मे॒ बलं॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णः। च॒। मे॒। अ॒पा॒न इत्य॑पऽआ॒नः। च॒। मे॒। व्या॒न इति॑ विऽआ॒नः। च॒। मे॒। असुः॑। च॒। मे॒। चि॒त्तम्। च॒। मे॒। आधी॑त॒मित्याऽधी॑तम्। च॒। मे॒। वाक्। च॒। मे॒। मनः॑। च॒। मे॒। चक्षुः॑। च॒। मे॒। श्रोत्र॑म्। च॒। मे। दक्षः॑। च॒। मे॒। बलम्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणश्च मे पानश्च मे व्यानश्च मे सुश्च मे चित्तञ्च म आधीतञ्च मे वाक्च मे मनश्च मे चक्षुश्च मे श्रोत्रञ्च मे दक्षश्च मे बलञ्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणः। च। मे। अपान इत्यपऽआनः। च। मे। व्यान इति विऽआनः। च। मे। असुः। च। मे। चित्तम्। च। मे। आधीतमित्याऽधीतम्। च। मे। वाक्। च। मे। मनः। च। मे। चक्षुः। च। मे। श्रोत्रम्। च। मे। दक्षः। च। मे। बलम्। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति 'स्व:'- सुख पर हुई है। उस सुख के लिए सब इन्द्रियों व शरीर का ठीक होना आवश्यक है। सुख का अर्थ ही सु+ख इन्द्रियों का उत्तम होना है, अतः इन्द्रियों की उत्तमता व स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि (प्राणश्च मे) = मेरी प्राणशक्ति (यज्ञेन) = यज्ञ से (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हो तथा (अपान: च मे) = मेरी अपानशक्ति भी यज्ञ द्वारा सामर्थ्ययुक्त हो। प्राण मुझे सबल बनाएगा तो अपान मेरे दोषों को दूर करेगा । २. (व्यानश्च मे) = मेरा सर्वशरीरचारी व्यानवायु यज्ञ द्वारा सम्पन्न हो और मुझे सारे नाड़ी संस्थान का स्वास्थ्य देनेवाला हो । (असुःच मे) = मेरे 'नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनञ्जय' आदि विविध प्रवृत्तियों के कारणभूत मरुत् भी शक्तिसम्पन्न हों। इनके ठीक होने से मेरी सब चेष्टाएँ मपी- तुली हों। ३. (चित्तं च मे) = मेरा मानससंकल्प यज्ञ द्वारा सम्पन्न हो और उसके ठीक होने से (आधीतं च मे) = मेरा बाह्यविषयज्ञान भी ठीक हो, अर्थात् असु के ठीक होने से मेरी अन्तर व बाह्य सभी क्रियाएँ ठीक होंगी। ४. (वाक् च मे) = मेरी वाणी की शक्ति ठीक हो और मनश्च मे मेरी मानसशक्ति बिलकुल ठीक हो । वाणी यहाँ सभी कर्मेन्द्रियों की प्रतीक है। मेरी सारी कर्मेन्द्रियाँ ठीक से कार्य करें। ५. कर्मेन्द्रियों के साथ (चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे) = मेरी देखने तथा सुनने की शक्ति ठीक हो । मेरी सब ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम करें। मैं इस जीवन में 'बहुद्रष्ट व बहुश्रुत' बन पाऊँ। ६. इस दर्शन व श्रवण से (दक्षश्च मे) = मुझे कार्य करने में दक्षता व चतुरता प्राप्त हो। मैं सब कार्यों को कुशलता से करनेवाला बनूँ (बलम् च मे) = मैं शक्तिसम्पन्न बनूँ। यह दक्षता व बल मुझे विजयी बनाएँ। ७. मेरी ये सब वस्तुएँ (यज्ञेन) = प्रभु सम्पर्क द्वारा (कल्पन्ताम्) = सामर्थ्ययुक्त हों।

    भावार्थ - भावार्थ- मैं प्राण से लेकर बल तक सब वस्तुओं को यज्ञ से सम्पन्न करनेवाला बनूँ ।

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