यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 45
स॒मु॒द्रोऽसि॒ नभ॑स्वाना॒र्द्रदा॑नुः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ मा॒रु॒तोऽसि म॒रुतां॑ ग॒णः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ऽव॒स्यूर॑सि॒ दुव॑स्वाञ्छ॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑॥४५॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रः। अ॒सि॒। नभ॑स्वान्। आ॒र्द्रदानु॒रित्या॒र्द्रऽदा॑नुः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। मयो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। मा॒रु॒तः। अ॒सि॒। म॒रुता॑म्। ग॒णः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। अ॒व॒स्यूः। अ॒सि॒। दुव॑स्वान्। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑ ॥४५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रोसि नभस्वानार्द्रदानुः शम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहा । मारुतो सि मरुताङ्गणः शम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहावस्यूरसि दुवस्वाञ्छम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
समुद्रः। असि। नभस्वान्। आर्द्रदानुरित्यार्द्रऽदानुः। शम्भूरिति शम्ऽभूः। मयोभूरिति मयःऽभूः। अभि। मा। वाहि। स्वाहा। मारुतः। असि। मरुताम्। गणः। शम्भूरिति शम्ऽभूः। मयोभूरिति मयःऽभूः। अभि। मा। वाहि। स्वाहा। अवस्यूः। असि। दुवस्वान्। शम्भूरिति शम्ऽभूः। मयोभूरिति मयःऽभूः। अभि। मा। वाहि। स्वाहा॥४५॥
विषय - प्रभु की ओर
पदार्थ -
१. गतमन्त्रों की भावना के अनुसार अपने ज्ञान व बल का वर्धन करनेवाला व्यक्ति अपने जीवन को कैसा बनाता है? प्रभु प्रेरणा करते हैं कि (समुद्रः असि) = [स- मुद्] तू सदा प्रसन्नता के साथ रहता है। तेरा जीवन आनन्दमय होता है। सांसारिक सुख-दुःखों में, ज्ञान के कारण समवृत्तिवाला होकर तू अपने मनःप्रसाद को नष्ट नहीं होने देता। २. नभस्वान् = [क] [नभस्वान्=Both the worlds, Heaven and Earth] इस मानस प्रसाद व शारीरिक स्वास्थ्य के कारण ही जीवन को सुन्दर बनाकर तू उभय लोककल्याण को सिद्ध करता है। इस लोक के अभ्युदय व परलोक के निःश्रेयसवाला होता है। [ख] (नभस्वान्) = [नभ् = to kill ] तू नभस्वाला होता है, अर्थात् तू बुराई को मूल में ही समाप्त करनेवाला होता है [Nip the evil in the bud] ३. इस प्रकार बुराइयों को समाप्त करके तू अपने जीवन में अच्छाइयों को पनपानेवाला (आर्द्रदानुः) = [आर्द्र ददाति इति] सदा औरों के प्रति दयार्द्र हृदय को प्राप्त करानेवाला होता है। तेरे जीवन में 'मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा' रूप अत्यन्त कोमल गुणों का विकास व प्रकाश हो उठता है। अब तू ४. (शम्भूः) = ऐहिक सुख की भावना करनेवाला [शम्भू ऐहिकं सुखं भावयति प्रापयति] होता है तथा साथ ही (मयोभूः) = [पारलौकिकं सुखं भावयति] परलोक के सुख का भी साधन करता है। ५. ऐसा तू (मा अभिवाहि) = मेरी ओर आ। इसके लिए (स्वाहा) = तुझे स्व का त्याग करना होगा, अर्थात् प्रभु को वही प्राप्त करता है जो [क] प्रसन्न मनवाला [ख] अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को सिद्ध करनेवाला तथा बुराइयों को समाप्त करके [ग] मैत्री, करुणा, मुदिता, व उपेक्षा आदि आर्द्र [प्रीतिपूर्ण] गुणों को समाज में प्राप्त करानेवाला होता है तथा जो [घ] शान्ति व कल्याण के भावन के लिए प्रयत्नशील होता है। ६. (मारुतः असि) = [ मरुत:- मनुष्याः] तू सदा मनुष्यों का हित करनेवाला है, तेरा कोई भी कार्य प्रजा-पीड़न के लिए नहीं होता और (मरुतां गणः) = [मरुतः प्राणाः] प्राणों का तू गण-पुञ्ज बनता है। प्राणपुञ्ज बनकर ही तो लोकहित-साधन सम्भव होता है। प्राणपुञ्ज बनकर तू ७. (शम्भूः मयोभूः) = ऐहिक व आमुष्मिक कल्याण को सिद्ध करता है, ऐसा तू (मा अभि वाहि) = मेरी ओर आ। (स्वाहा) = स्वार्थ को समाप्त कर और मुझे पा। प्रभु को वही पाता है जो मानवहित के लिए अपने को खपा देता है। इस हित के लिए ही प्राण-साधना करके सशक्त बना रहता है। ८. (अवस्यूः असि) = [ अव : सीव्यति इति अवस्यूः ] तू अपने जीवन में रक्षण- तन्तु का सन्तान करनेवाला है। तू कभी अपने को वासनाओं का शिकार नहीं होने देता। ९. (दुवस्वान्) = वासनाओं से रक्षण के लिए ही तू [दुव:-परिचरण] प्रभु की परिचर्यावाला होता है। । प्रभु का उत्तमता से उपासन करता हुआ तू वासनाओं से अभिभूत नहीं होता । १०. ऐसा तू (शम्भूः मयोभूः) = शान्ति व कल्याण को उत्पन्न करता हुआ (मा अभिवाहि) = मेरी ओर आ और इसके लिए (स्वाहा) = स्व को समाप्त कर दे। अपने को मेरे प्रति अर्पण कर दे।
भावार्थ - भावार्थ-सुख प्रभु-प्राप्ति में है। प्रभु प्राप्ति 'समुद्र - नभस्वान्- आर्द्रदान्-मारुत-मरुतां गण-अवस्यू-दुवस्वान् व शम्भू तथा मयोभू को ही होती है।
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