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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 50
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः
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    स्व॒र्ण घ॒र्मः स्वाहा॑ स्वर्णार्कः स्वाहा॑ स्वर्ण शु॒क्रः स्वाहा॒ स्वर्ण ज्योतिः॒ स्वाहा॒ स्वर्ण सूर्यः॒ स्वाहा॑॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वः॑। न। घ॒र्मः। स्वाहा॑। स्वः॑। न। अ॒र्कः। स्वाहा॑। स्वः॑। न। शु॒क्रः। स्वाहा॑। स्वः॑। न। ज्योतिः॑। स्वाहा॑। स्वः॒। न। सूर्यः॑। स्वाहा॑ ॥५० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वर्ण घर्मः स्वाहा स्वर्णार्कः स्वाहा स्वर्ण शुक्रः स्वाहा स्वर्ण ज्योतिः स्वाहा स्वर्ण सूर्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वः। न। घर्मः। स्वाहा। स्वः। न। अर्कः। स्वाहा। स्वः। न। शुक्रः। स्वाहा। स्वः। न। ज्योतिः। स्वाहा। स्वः। न। सूर्यः। स्वाहा॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 50
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में प्रभु से प्रार्थना की गई थी कि हे प्रभो! हमारे जीवन को व्यर्थ नष्ट मत होने दीजिए। प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु जीव से जीवन को सार्थक बनाने के लिए पाँच बातें कहते हैं- (स्वः न घर्मः) = सूर्य की भाँति तू गरमीवाला हो [स्व:- स्वयं राजमानज्योति, अर्थात् सूर्य] तुझमें प्राणों की उष्णता हो। प्राणशक्ति की वृद्धि से तेरा यह अन्नमयकोश तेजस्वी हो । (स्वाहा) = इस शक्ति की उष्णता प्राप्त करने के लिए तू 'स्व' का (हा) = त्याग करनेवाला बन। सुख व आराम को छोड़कर तप की अग्नि में अपने को आहुत कर । २. (स्वः न) = सूर्य की भाँति । जैसे सूर्य निरन्तर अपने कार्य में लगा हुआ है उसी प्रकार तू भी अपने कार्य में प्रवृत्त हुआ हुआ (अर्क:) = [अर्च पूजायाम्] प्रभु की पूजा करनेवाला बन। तेरे इस प्राणमयकोश में सभी इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य सुन्दरता से करती हुई उस प्रभु की पूजा करनेवाली हों। (स्वाहा) = तू अपने इन इन्द्रियों को स्व- अपने-अपने कार्य में (हा) = आहुत करनेवाला बन। ये अपने-अपने कार्य में लगी रहें, आराम न करने लग जाएँ। ३. (स्वः न) = सूर्य की भाँति ही (शुक्रः) - [शुच दीप्तौ ] तू अपने मनोमयकोष में अत्यन्त निर्मल बन। सब मैलों को दूर भगाकर पवित्र हो जा। (स्वाहा) = तू अपने सब मलों को भस्म कर दे। ४. अब अपने विज्ञानमयकोष में (स्वः न) = इस चमकते हुए सूर्य की भाँति (ज्योतिः) = तू ज्योतिर्मय हो । ज्ञान को बढ़ाकर सूर्य की भाँति चमकनेवाला बन। (स्वाहा) = इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सब सुखों को त्यागनेवाला हो । सुखों को त्यागकर ही तू ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। ५. अन्त में (स्वः न) = इस देदीप्यमान सूर्य की भाँति (सूर्य:) = तू भी सूर्य बन। 'सू प्रसवैश्वर्ययो:' सूर्य उत्पादन व ऐश्वर्य की देवता है। तू भी उत्पादन के द्वारा ऐश्वर्य का वर्धन करता हुआ आनन्द को प्राप्त कर । आनन्द का रहस्य निर्माण द्वारा ऐश्वर्य वृद्धि में ही है। जीवन की सफलता की यही चरमसीमा है।

    भावार्थ - भावार्थ-[१] प्राणशक्ति की सफलता, [२] इन्द्रियों की रचनाकार्यवृत्ति, [३] मन की शुचिता, [४] मस्तिष्क की ज्योति तथा [५] उत्पादन द्वारा ऐश्वर्य वृद्धि - जीवन की सार्थकता इन्हीं पाँच बातों में है।

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