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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 24
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - मनुष्यो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उप॒ प्रागा॑त् पर॒मं यत्स॒धस्थ॒मर्वाँ॒२ऽअच्छा॑ पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च। अ॒द्या दे॒वाञ्जुष्ट॑तमो॒ हि ग॒म्या॑ऽअथाशा॑स्ते दा॒शुषे॒ वार्य॑णि॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। प्र। अ॒गा॒त्। प॒र॒मम्। यत्। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। अर्वा॑न्। अच्छ॑। पि॒त॑रम्। मा॒तर॑म्। च॒। अ॒द्य। दे॒वान्। जुष्ट॑तम॒ इति॒ जुष्ट॑ऽतमः। हि। गम्याः। अथ॑। आ। शा॒स्ते॒। दा॒शुषे॑। वार्या॑णि ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपप्रागात्परमँयत्सधस्थमर्वाँऽअच्छा पितरम्मातरञ्च । अद्या देवान्जुष्टतमो हि गम्याऽअथा शास्ते दाशुषे वार्याणि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप। प्र। अगात्। परमम्। यत्। सधस्थमिति सधऽस्थम्। अर्वान्। अच्छ। पितरम्। मातरम्। च। अद्य। देवान्। जुष्टतम इति जुष्टऽतमः। हि। गम्याः। अथ। आ। शास्ते। दाशुषे। वार्याणि॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -
    १. (अर्वान्) = [नलोपाभावश्छान्दसः, अर्वा] वासनाओं का संहार करनेवाला यह व्यक्ति उस स्थान को उपप्रागात् प्राप्त हुआ है (यत्) = जो (परमं) = सर्वोत्कृष्ट (सधस्थम्) = परमात्मा व आत्मा का 'महेन्द्र व उपेन्द्र का' एकत्र स्थित होने का स्थान है। इसे ही मोक्षलोक कहते हैं, इसमें उपनिषद् के 'सह ब्रह्मणा विपश्चिता' शब्दों के अनुसार यह मुक्तात्मा ब्रह्म के साथ विचरता है। यह पुरुष ब्रह्मनिष्ठ होकर सब कार्यों को किया करता है। २. यह अपने जीवन के प्रराम्भ में (मातरम् पितरम् च अच्छ) = माता और पिता की ओर (गम्याः) = जाता है। माता के शिक्षणालय में सच्चरित्र बनकर, पिता के शिक्षणालय में सदाचार का शिक्षण प्राप्त करता है। ३. और (अद्य) = आज सच्चरित्र, सदाचारी बनकर (जुष्टतमः) = प्रीततम होता हुआ, अर्थात् प्रसन्न मन से ज्ञान प्राप्ति की प्रबल कामनावाला होता हुआ (हि) = निश्चय से (देवान्) = ज्ञानी विद्वानों को (गम्याः) = प्राप्त होता है। इनके समीप रहकर ही तो यह विविध विद्याओं का अध्ययन करेगा। ४. अब यह आचार्य भी इन विज्ञानी विद्वानों में से प्रत्येक विद्वान् (दाशुषे) = इस आत्मसमर्पण करनेवाले विद्यार्थी के लिए (वार्याणि) = वरणीय ज्ञानों को (आशास्ते) = चाहता है। आचार्य का प्रयत्न होता है कि वह इस जुष्टतम विद्यार्थी को ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान प्राप्त करानेवाला हो सके।

    भावार्थ - भावार्थ-वासनाओं के विनाश से हम प्रभु के समीप पहुँचते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए हमारे जीवन का निर्माण माता, पिता व आचार्यों के शिक्षणालय में सच्चरित्रता, सदाचार व ज्ञान के शिक्षण से होता है। हम आचार्यों के प्रति अपना अर्पण करते हैं, आचार्य हमें ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान देते हैं।

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