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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 27
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    नरा॒शꣳस॑स्य महि॒मान॑मेषा॒मुप॑ स्तोषाम यज॒तस्य॑ य॒ज्ञैः।ये सु॒क्रत॑वः॒ शुच॑यो धिय॒न्धाः स्वद॑न्ति दे॒वाऽउ॒भया॑नि ह॒व्या॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नरा॒शꣳस॑स्य। म॒हि॒मान॑म्। ए॒षा॒म्। उप॑। स्तो॒षा॒म॒। य॒ज॒तस्य॑। य॒ज्ञैः। ये। सु॒क्रत॑व॒ इति॑ सु॒ऽक्रत॑वः। शुच॑यः। धि॒य॒न्धा इति॑ धिय॒म्ऽधाः। स्वद॑न्ति। दे॒वाः। उ॒भया॑नि। ह॒व्या ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नराशँसस्य महिमानमेषामुप स्तोषाम यजतस्य यज्ञैः । ये सुक्रतवः शुचयो धियन्धाः स्वदन्ति देवाऽउभयानि हव्या ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नराशꣳसस्य। महिमानम्। एषाम्। उप। स्तोषाम। यजतस्य। यज्ञैः। ये। सुक्रतव इति सुऽक्रतवः। शुचयः। धियन्धा इति धियम्ऽधाः। स्वदन्ति। देवाः। उभयानि। हव्या॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -
    १. (नराशंसस्य) = मनुष्यों से शंसन के योग्य (यजतस्य) = सबके साथ संगतिकरणवाले अथवा सब-कुछ देनेवाले [यज संगतिकरणदान] पूज्य [यज = पूजा] प्रभु की (एषाम्) = इन लोगों से (यज्ञैः) = लोकहित के कर्मों द्वारा होनेवाली (महिमानम्) = पूजा को (उपस्तोषाम्) = हम स्तुत करते हैं, अर्थात् इन लोगों से की जानेवाली प्रभु की महिमा [पूजा] की हम प्रशंसा करते हैं। ये जो [क] (सुक्रतवः) = उत्तम संकल्प, कर्म व प्रज्ञानवाले हैं, [ख] (शुचय:) = अर्थ के दृष्टिकोण से पवित्र हैं। [ग] (धियन्धाः) = जो बुद्धि व ज्ञानपूर्वक कर्मों को धारण करनेवाले हैं, और [घ] जो (देवाः) = देववृत्तिवाले बनकर (उभयानि) = बुद्धि व शरीर दोनों के दृष्टिकोण से (हव्या) = ग्रहण योग्य पदार्थों को (स्वदन्ति) = आनन्द से सेवन करते हैं। ये खाने योग्य पदार्थों को ही खाते हैं और खाने योग्य पदार्थ इनके दृष्टिकोण में वे ही हैं जो बुद्धि के वर्धक हैं तथा स्वास्थ्य को ठीक रखनेवाले हैं। ३. इस प्रकार ये लोग प्रभु की क्रियात्मिक भक्ति करते हैं, इनकी भक्ति दृश्यभक्ति है। यही भक्ति प्रशंसनीय है। केवल गुणानुवाद स्तवन तो श्रव्यभक्ति है, वह प्रभु को प्रीणित नहीं कर सकती। प्रभु तो हमारे कर्मों से ही प्रीणित होंगे।

    भावार्थ - भावार्थ- हम सुक्रतु, शुचि, धी- सम्पन्न व हव्यों के ग्रहण करनेवाले बनकर प्रभु की सच्ची भक्ति करनेवाले हों।

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