यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 56
ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः
देवता - वादयितारो वीरा देवताः
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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आ क्र॑न्दय॒ बल॒मोजो॑ न॒ऽआधा॒ निष्ट॑निहि दुरि॒ता बाध॑मानः।अप॑ प्रोथ दुन्दुभे दु॒च्छुना॑ऽइ॒तऽइन्द्र॑स्य मु॒ष्टिर॑सि वी॒डय॑स्व॥५६॥
स्वर सहित पद पाठआ। क्र॒न्द॒य। बल॑म्। ओजः॑। नः॒। आ। धाः॒। निः। स्त॒नि॒हि॒। दु॒रि॒तेति॑ दुःऽइ॒ता। बाध॑मानः। अप॑। प्रो॒थ॒। दु॒न्दु॒भे॒। दु॒च्छुना॑। इ॒तः। इन्द्र॑स्य। मु॒ष्टिः। अ॒सि॒। वी॒डय॑स्व ॥५६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ क्रन्दय बलमोजो नऽआधा निष्टनिहि दुरिता बाधमानः । अपप्रोथ दुन्दुभे दुच्छुनाऽइतऽइन्द्रस्य मुष्टिरसि वीडयस्व ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। क्रन्दय। बलम्। ओजः। नः। आ। धाः। निः। स्तनिहि। दुरितेति दुःऽइता। बाधमानः। अप। प्रोथ। दुन्दुभे। दुच्छुना। इतः। इन्द्रस्य। मुष्टिः। असि। वीडयस्व॥५६॥
विषय - परायों को रुलाना-अपने को सबल बनाना
पदार्थ -
१. हे दुन्दुभे ! तू (बलम्) = शत्रुसैन्य को (आक्रन्दय) = रुला दे। 'मेरा भाई मारा गया, मेरे पिता चले गये' इस प्रकार रोती हुई शत्रुसेना भाग खड़ी हो। २. तू (नः) = हममें (ओजः आधा:) = ओजस्विता का आधान कर। तेरा नाम ही 'आनक' है, आनयति सोत्साहान् करोति-यह शब्द वीरों को आनन्दित करता है, वे अधिक उत्साहयुक्त होकर युद्ध के लिए आगे बढ़ते हैं । ३. (दुरिता) = दुरितों को गलत चालों को, भाग जाने आदि की अपमानजनक भावनाओं को (बाधमानः) = रोकती हुई तू (निष्टनिहि) = निश्चत विजय के लिए शब्द कर। ४. हे दुन्दुभे ! तू (इतः) = यहाँ रणांगण से (दुच्छुना:) = दुष्ट कुत्ते के समान हमारे शत्रुओं को (अप प्रोथ) = सुदूर नष्ट कर दे। 'दुच्छुना' शब्द का अर्थ 'दुष्ट सुखों में फँसे हुए लोगों को' ऐसा होगा। इन लोगों को यह युद्ध का डिण्डिमशब्द दूर भगा दे । ५. हे दुन्दुभे ! तू तो (इन्द्रस्य) = इस शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले राजा व सेनापति की (मुष्टिरसि) = मुष्टि है। जैसे मुष्टि से प्रहार करते हैं, इसी प्रकार दुन्दुभि का शब्द भी शत्रु पर प्रबल प्रहार करता है, अतः, हे दुन्दुभे ! (वीडयस्व) = तू हमारे सैनिकों को दृढ़ बनानेवाली हो अथवा वीरतायुक्त कर्म कर ।
भावार्थ - भावार्थ- दुन्दुभि का शब्द जहाँ शत्रु को भयभीत करता है, वहाँ अपने सैनिकों को उत्साहयुक्त करता है। इसके शब्द से शत्रु सैन्य कुत्तों की भाँति भाग खड़ा हो।
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