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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - ब्रह्मादयो देवताः छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
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    वा॒युष्ट्वा॑ पच॒तैर॑व॒त्वसि॑तग्रीव॒श्छागै॑र्न्य॒ग्रोध॑श्चम॒सैः श॑ल्म॒लिर्वृद्ध्या॑। ए॒ष स्य रा॒थ्यो वृषा॑ प॒ड्भिश्च॒तुर्भि॒रेद॑गन्ब्र॒ह्मा कृ॑ष्णश्च नोऽवतु॒ नमो॒ऽग्नये॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒युः। त्वा॒। प॒च॒तैः। अ॒व॒तु॒। असि॑तग्रीव॒ इत्यसि॑तऽग्रीवः। छागैः॑। न्य॒ग्रोधः॑। च॒म॒सैः। श॒ल्म॒लिः। वृद्ध्या॑। ए॒षः। स्यः। रा॒थ्यः। वृषा॑। प॒ड्भिरिति॑ प॒ड्ऽभिः। च॒तुर्भि॒रिति॑ च॒तुःभिः॑। आ। इत्। अ॒ग॒न्। ब्र॒ह्मा। अकृ॑ष्णः। च॒। नः॒। अ॒व॒तु॒। नमः॑। अ॒ग्नये॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायुष्ट्वा पचतैरवतुऽअसितग्रीवश्छागैन्यग्रोधश्चमसैः शल्मलिर्वृद्धयाऽएष स्य राथ्यो वृषा । पड्भिश्चतुर्भिरेदगन्ब्रह्माकृष्णश्च नोवतु नमो ग्नये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वायुः। त्वा। पचतैः। अवतु। असितग्रीव इत्यसितऽग्रीवः। छागैः। न्यग्रोधः। चमसैः। शल्मलिः। वृद्ध्या। एषः। स्यः। राथ्यः। वृषा। पड्भिरिति पड्ऽभिः। चतुर्भिरिति चतुःभिः। आ। इत्। अगन्। ब्रह्मा। अकृष्णः। च। नः। अवतु। नमः। अग्नये॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -
    हे राजन् ! (त्वा) तुझको (वायुः ) वायु के समान वेगवान्, शत्रुओं को प्रबल आक्रमण से उखाड़ने वाला वीर पुरुष (पचतैः) शत्रुओं को परिपाक, पीड़न करने के साधनों से (वा भवतु ) तेरी रक्षा करे । (असितग्रीवः) नीले गर्दन वाला, नीले मणि, विशेष चिह्न को कण्ठ में पहिनने वाला वीर पुरुष तुझे (छागैः) शत्रुओं को छेदन करने वाले अस्त्रों या वीरों से ( अवतु ) तेरी रक्षा करे । ( न्यग्रोधः ) वट जिस प्रकार - फैलता २ अपने मूल छोड़ता है उसी प्रकार जिस २ देश को विजय करे वहां २ राजा के शासन- सूत्रों को छोड़नेहारा 'वनस्पति' नाम अधिकारी (चमसैः) पर राष्ट्र को वश करने या हड़प जाने वाले सैनिकों या पिण्डभोजी, वेतनबद्ध भृत्यों से (त्वा अवतु ) तेरी रक्षा करे । ( शल्मलिः वृद्ध्या ) और सैमर वृक्ष के समान विशाल प्रकाण्ड फैला २ कर बढ़ने और परिणाम में रुई उड़ा २ कर मानो राजा की कीर्त्ति फैलाने वाला अधिकारी या प्रधान माण्डलिक अपनी वृद्धि से तुझे बढ़ावे । (एषः) यह (अस्य) इस राजा को ( राथ्यः) रथ समूहों का स्वामी ( वृषा ) बलवान् सेनापति (चतुर्भिः पभिः) चार पदों या अधिकारों से युक्त होकर ( आ अगन् इत् ) आवे और (अकृष्णः च) अकृष्ण अर्थात् शुक्ल, निष्पाप या शुद्ध श्वेतवस्त्र धारण करने हारा (ब्रह्मा) चारों वेदों का ज्ञाता (नः) हमें (अवतु) रक्षा करे । ( नमः अग्नये ) उस अग्निवत् तेजस्वी, वेदज्ञ, विद्वान्, अग्नि के समान तेजस्वी राजा और सेनापति का हम आदर करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मादयो देवताः । भुरिगतिजगती । निषादः ॥

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