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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 24
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - भूमिसूर्यौ देवते छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    मा॒ता च॑ ते पि॒ता च॒ तेऽग्रं॑ वृ॒क्षस्य॑ रोहतः। प्रति॑ला॒मीति॑ ते पि॒ता ग॒भे मु॒ष्टिम॑तꣳसयत्॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒ता। च॒। ते॒। पि॒ता। च॒। ते॒। अग्र॑म्। वृ॒क्षस्य॑। रो॒ह॒तः॒। प्रति॑लामि। इति॑। ते॑। पि॒ता। ग॒भे। मु॒ष्टिम्। अ॒त॒ꣳस॒य॒त्॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    माता च ते पिता च तेग्रँ वृक्षस्य रोहतः । प्रतिलामीति ते पिता गभे मुष्टिमतँसयत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    माता। च। ते। पिता। च। ते। अग्रम्। वृक्षस्य। रोहतः। प्रतिलामि। इति। ते। पिता। गभे। मुष्टिम्। अतꣳसयत्॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 24
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    भावार्थ -
    हे राष्ट्र ! (ते माता च ) तेरा माता, निर्माता, ज्ञानवान् पुरुष, ( ते पिता च) और तेरा पिता, पालक, राजा, दोनों (वृक्षस्य) भूमि को आच्छादन करने वाले शासन के ( अग्रम् ) मुख्य पद पर (रोहत :) आरूढ़ होते हैं । और (ते पिता) तेरा पालक राजा भी (प्रतिलामि इति) स्नेह करता हूँ इस भाव से ही (गभे = भगे) प्रजा के ऐश्वर्य के आधार पर ( मुष्टिम् ) दुःखों से छुड़ाने वाले सुसंगठित राष्ट्र, अथवा शत्रुनाशक शस्त्र बल को ( अतंसंयत् ) सुशोभित करता है । 'अ' - श्रीर्वै राष्ट्रस्य अग्रम् । श्रियमेवेनं गमयति । बिड्वै गभो राष्ट्रं मुष्टि: । राष्ट्रम् एव विशि आहन्ति । तस्माद् राष्ट्री विशं घातुकः । श्री राष्ट्र का अग्र भाव है । 'गभ' प्रजा है । राष्ट्र राज्य प्रबन्ध या शासन 'मुष्टि' है । जैसे ढीले हाथ में कुछ शक्ति नहीं, उसकी मुट्ठी बांध लेने पर वह बलवान् हो जाता है वैसे प्रजा को शासन में बांध लेने पर वह दृढ़ मुट्ठी के समान हो जाती है । वह राष्ट्र ही प्रजा के आधार पर चलता है राष्ट्रपति इस प्रकार प्रजा को ही प्राप्त होता है । राजा का यह स्नेह है कि वह बिखरी प्रजा को मुट्ठी का रूप देता है, यही प्रजा की शोभा है कि स्नेह से पांचों अंगुलियों के समान पांचों जन मिलकर एक हो जाते हैं, 'वृक्षस्य ' - वृत्वा क्षां तिष्ठतीति । निरुक्तम् । 'मुष्टिम् ' — मोचनाद् मोपणाद्, मोहनाद्वा । निरु० ६।१।१ । ( २ ) गृहस्थ पक्ष में- हे पुरुष ! (ते माता च पिता च वृक्षस्य भयं रोहतः) तेरे माता पिता ही गृहस्थाश्रमरूप आश्रय वृक्ष के मुख्य पद पर स्थित हैं । (ते पिता) तेरा पिता स्नेह करता हूँ इस भाव से ही (गभे = भगे) ऐश्वर्य के बल पर अथवा स्त्री के आधार पर ही अपने ( मुष्टिम् ) मुट्ठी के समान एक कर देने वाली परिवारिक स्नेह की व्यवस्था को सुशोभित करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भूमिसूर्यौ देवते । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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