यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 2
सुस॑मिद्धाय शो॒चिषे॑ घृ॒तं ती॒व्रं जु॑होतन। अ॒ग्नये॑ जा॒तवे॑दसे॥२॥
स्वर सहित पद पाठसुस॑मिद्धा॒येति सुऽस॑मिद्धाय। शो॒चिषे॑। घृ॒तम्। ती॒व्रम्। जु॒हो॒त॒न॒। अ॒ग्नये॑। जा॒तवे॑दस॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दसे ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतन्तीव्रं जुहोतन । अग्नये जातवेदसे ॥
स्वर रहित पद पाठ
सुसमिद्धायेति सुऽसमिद्धाय। शोचिषे। घृतम्। तीव्रम्। जुहोतन। अग्नये। जातवेदस इति जातऽवेदसे॥२॥
विषय - यज्ञ, अग्नि का उपयोग, और ईश्वर उपासना ।
भावार्थ -
( सु-सम्-इद्वाय ) खूब अच्छी प्रकार प्रदीप्त ( शोचिषे ) प्रकाशमान, ज्वालामय, अन्यों के भी दोष निवारण में समर्थ ( जातवेदसे ) प्रत्येक पदार्थ में व्यापक, प्रज्ञावान् ऐश्वर्यवान् ( अग्नये ) अग्नि परमेश्वर, विद्वान् एवं राजा में ( तीव्रम् ) अतितीव्र, दोषनिवारक ( घृतम् ) आज्य, जल और उपायन एवं बलदायक या जयप्रद पदार्थ ( आ जुहोतन ) सब प्रकार से प्रदान करो ॥
टिप्पणी -
२ -- सुश्रुत ऋषिः । द० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
वसुश्रुत ऋषिः । अग्निदेवता । गायत्री । षड्जः ॥
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