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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 28
    ऋषिः - प्रबन्धु ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - विराट् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    सो॒मान॒ꣳ स्वर॑णं कृणु॒हि ब्र॑ह्मणस्पते। क॒क्षीव॑न्तं॒ यऽऔ॑शि॒जः॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सो॒मान॑म्। स्व॑रणम्। कृ॒णु॒हि॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। क॒क्षीव॑न्तम्। यः। औ॒शि॒जः ॥२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमानँ स्वरणङ्कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तँ यऽऔशिजः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोमानम्। स्वरणम्। कृणुहि। ब्रह्मणः। पते। कक्षीवन्तम्। यः। औशिजः॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 28
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    भावार्थ -

    हे (ब्रह्मणस्पते) हे ब्रह्म = वेदशास्त्र के पालक ईश्वर वा आचार्य तू ( य: ) जो ( औशिजः ) कान्ति या प्रताप से उत्पन्न तेजस्वी और प्रतापी है उसको ही ( सोमानं ) सबका प्रेरक सोम (स्वरणम् ) सबका आज्ञापक, सन्मार्ग उपदेशक और ( कक्षीवन्तम् ) उत्तम कार्य, उत्तम नीति सम्पन्न, विद्या, राज्यप्रबन्ध आदि कार्य में, रथ में अश्व के समान, नियुक्त ( कृणुहि ) कर । तेजस्वी पुरुष को विद्वान् लोग राष्ट् का नेता, प्रवर्तक आज्ञापक और प्रभुपद पर नियुक्त करें ॥ 
    ईश्वर पक्ष में- हे ईश्वर जो मैं सब विद्या का अभिलाषी हूं मुझको सबका साधक, सर्व विद्योपदेशक बना || शत० ३ । २ । ४ । ३५ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    सुन्ध्वादयो ब्रह्मणस्पति मेधातिथिर्वा ऋषिः । ब्रह्मणस्पतिर्देवता । विराड्
    गायत्री । षड्जः ॥

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