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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निसूर्यो देवते छन्दः - पङ्क्ति,याजुषी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    1

    अ॒ग्निर्ज्योति॒र्ज्योति॑र॒ग्निः स्वाहा॒ सूर्यो॒ ज्योति॒र्ज्योतिः॒ सूर्यः॒ स्वाहा॑। अ॒ग्निर्वर्चो॒ ज्योति॒र्वर्चः॒ स्वाहा॒ सूर्यो॒ वर्चो॒ ज्योति॒र्वर्चः॒ स्वाहा॑। ज्योतिः॒ सूर्यः॒ सूर्यो॒ ज्योतिः॒ स्वाहा॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। ज्योतिः॑। ज्योतिः॑। अ॒ग्निः। स्वाहा॑। सूर्य्यः॑। ज्योतिः॑। ज्योतिः॑। सूर्य्यः॑। स्वाहा॑। अ॒ग्निः। वर्च्चः॑। ज्योतिः॑। वर्च्चः॑। स्वाहा॑। सूर्य्यः॑। वर्च्चः॑। ज्योतिः॑। वर्च्चः॑। स्वाहा॑। ज्योतिः॑। सूर्य्यः॑। सूर्य्यः॑। ज्योतिः॑। स्वाहा॑ ॥९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्ज्यातिर्ज्यातिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्यातिः सूर्यः स्वाहा अग्निर्वर्चा ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो वर्चा ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। ज्योतिः। ज्योतिः। अग्निः। स्वाहा। सूर्य्यः। ज्योतिः। ज्योतिः। सूर्य्यः। स्वाहा। अग्निः। वर्च्चः। ज्योतिः। वर्च्चः। स्वाहा। सूर्य्यः। वर्च्चः। ज्योतिः। वर्च्चः। स्वाहा। ज्योतिः। सूर्य्यः। सूर्य्यः। ज्योतिः। स्वाहा॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 9
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    भावार्थ -

    ( अग्निः ज्योतिः ) अग्नि ज्योतिःस्वरूप है और ( ज्योतिः अग्निः ) समस्त ज्योति अग्निरूप है । ( स्वाहा ) यह ज्योति स्वरूपता ही अग्नि के अपनी महिमा का प्रत्यक्ष वर्णन है । ( सूर्यः ज्योतिः ) सूर्य ज्योति है । ( ज्योतिः सूर्यः ) ज्योति ही सूर्य है । ( स्वाहा ) यही उसके अपने महत्व का उत्तम स्वरूप है । इस देह में ( अग्निः वर्चः ) अग्नि ही तेज है ( ज्योतिर्वचः ) ज्योति ही तेज है । (स्वाहा ) यहीं उसका अपना उत्कृष्टरूप है । ( सूर्यः वर्चः ज्योतिः वर्चः ) सूर्य तेज है, ज्योति तेज है । ( स्वाहा ) यही उसका अपना महत्वपूर्ण रूप है । ( ज्योति: सूर्य: सूर्य: ज्योतिः स्वाहा ) ज्योति सूर्य है और सूर्य ही ज्योति है । यही उसका यथार्थ महत्वरुप है ॥ 
    स्वाहा -- स्वो वै महिमा आह इति । स्वाहा इत्येवाजुहोत् । शत० १। २ । ४ । ६ ॥ यह मेरा ही महत्व या उत्कृष्टरूप है इस बात को 'स्वाहा' शब्द कहता है । प्रजापति की अपने उत्कृष्टरूप अग्नि सूर्य, ज्योति और वर्चस, ये है और ये सर्वत्र प्रकट होकर अपने महत्व को दर्शाते हैं । इसका व्याख्यान विस्तार शतपथ में देखें । शत० कां० २।२ । ४,५ ॥ 'स्वस्य अहानमस्तु' इति स्वाहा इत्युव्वटः । अपने स्वरूप का नाश नहीं होता यह 'स्वाहा' का अर्थ है । स्वं प्राह इति वा स्वाहुतं हविर्जुहोति इति वा । निरु० ॥ 
    अथवा --- ( अग्नि: ) ज्ञानमय परमेश्वर ( ज्योतिः ) सर्वप्रकाशक है और ( ज्योतिः ) प्रकाशमय ( अग्निः ) भौतिक अग्नि के समान ही परमेश्वर सब पदार्थों का ज्ञापक अग्नि है ! यह ( स्वाहा ) सत्य बात है | ( सूर्यः ) सब संसार में व्यापक और उसका ज्ञाता परमेश्वर ( ज्योतिः ) वेद द्वारा समस्त विद्याओं का उपदेष्टा 'ज्योति' है । वह भी (ज्योतिः) पृथिवी आदि पदार्थों के द्योतन या प्रकाशन करने वाले ( सूर्य: ) सूर्य के समान तेजोमय है । ( स्वाहा ) यही वास्तविक बात है । ( अग्निः ) सर्वविद्या- प्रदाता आचार्य ( वर्चः ) सब पदार्थों का दीपक, ज्ञापक विद्याप्रदाता है, वह ( ज्योतिः ) सब पदार्थ प्रकाशक ( वर्चः ) तेज के समान ही सब विद्याओं का प्रकाशक है । (स्वाहा ) इस प्रकार ही सत्य जानो । (सूर्यः ) सब व्यवहारों का प्रर्वतक प्राण ही ( वर्चः ) सवका प्रकाशक है । ( ज्योतिर्वचः ) सर्व पदार्थों का द्योतक तेज ही है ( स्वाहा ) यह सत्य ज्ञान है ! ( सूर्यो ज्योतिः ) सूर्य ही सब पदार्थों का ज्योति अर्थात् प्रकाशक है और प्रकाशक ज्योति ही सूर्य है । यही ( स्वाहा ) उसकी अपनी महिमा का स्वरूप है ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अग्निसूर्यौ देवते । पंक्तिः । मध्यमः । अग्निर्ज्योतिरिति द्वयस्य तक्षा ऋषिः । ज्योतिः सूर्य इत्यस्य जीवलस्ग्चैलकिश्च ऋषीः ।

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