यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 24
ऋषिः - वैश्वामित्रो मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
1
स नः॑ पि॒तेव॑ सू॒नवेऽग्ने॑ सूपाय॒नो भ॑व। सच॑स्वा नः स्व॒स्तये॑॥२४॥
स्वर सहित पद पाठसः। नः॒। पि॒तेवेति॑ पि॒ताऽइ॑व। सू॒नवे॑। अग्ने॑। सू॒पा॒य॒न इति॑ सुऽउ॒पा॒य॒नः। भ॒व॒। सच॑स्व। नः॒। स्व॒स्तये॑ ॥२४॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः पितेव सूनवे ग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठ
सः। नः। पितेवेति पिताऽइव। सूनवे। अग्ने। सूपायन इति सुऽउपायनः। भव। सचस्व। नः। स्वस्तये॥२४॥
विषय - राजा का परमेश्वर के समान प्रजा के प्रति पिता के तुल्य होने का उपदेश।
भावार्थ -
हे राजन् !अग्ने ! प्रभो ! अग्रणी पुरुष ! ( सः ) वह तू ( सूनवे ) पुत्र के लिये पिता के समान (सूपायन: भव ) सुखपूर्वक प्राप्त होने योग्य, शरण के समान पालक हों और ( नः स्वस्तये ) हमारे कल्याण के लिये ( नः सचस्व ) हमें प्राप्त हो । राजा प्रजा के प्रति पिता के समान हो । उनके कल्याण के लिये कार्य में नियुक्त हो । ईश्वर के प्रति स्पष्ट है ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
वैश्वामित्रो मधुच्छन्दाऋषिः । अग्निर्देवता । विराड् गायत्री । षड्जः ॥
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