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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 31
    ऋषिः - सप्तधृतिर्वारुणिर्ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - विराट् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    महि॑ त्री॒णामवो॑ऽस्तु द्यु॒क्षं मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः। दु॒रा॒धर्षं॒ वरु॑णस्य॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    महि॑। त्री॒णाम्। अवः॑। अ॒स्तु॒। द्यु॒क्षम्। मि॒त्रस्य॑। अ॒र्य॒म्णः। दु॒रा॒धर्ष॒मिति॑ दुःऽआ॒धर्ष॑म्। वरु॑णस्य ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महि त्रीणामवो स्तु द्युक्षम्मित्रस्यार्यम्णः । दुराधर्षँवरुणस्य ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महि। त्रीणाम्। अवः। अस्तु। द्युक्षम्। मित्रस्य। अर्यम्णः। दुराधर्षमिति दुःऽआधर्षम्। वरुणस्य॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 31
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    भावार्थ -

    ( मित्रस्य ) मित्र , ( अर्यम्णः ) अर्यमा और ( वरुणस्य ) वरुण ( त्रीणाम् ) इन तीनों का ( महि )बड़ा ( द्युक्षम् ) ज्ञान प्रकाश और न्याय का आश्रयभूत ( दुराधर्षम् ) एवं अमेद्य, अछेद्य ( अव: ) पालन या राज्य, प्रजापालन कार्य ( अस्तु ) हो । राज्य शासन में मित्र सबको मरने से त्राण करने वाला, रक्षा विभाग, अर्यमा, न्यायविभाग, वरुण, शत्रुदमन एवं योद्धृवर्ग इन तीनों द्वारा किये गये प्रजा पालन के कार्य नीति न्यायपूर्वक और शत्रुओं और द्रोहियों द्वारा अभेद्य हों जिसको कोई तोड़ न सके। भौतिक पक्ष में प्राण, सूर्य और बल इनका पालन कार्य हमें सदा प्राप्त हो ॥ शत० २। ३ । ४ । ३७ ॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    सत्यधृतिर्वारुणिऋषिः । आदित्यः । विराड् गायत्री । षड्जः ॥

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