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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 20
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अषा॑ढं यु॒त्सु पृत॑नासु॒ पप्रि॑ꣳ स्व॒र्षाम॒प्सां वृ॒जन॑स्य गो॒पाम्।भ॒रे॒षु॒जा सु॑क्षि॒तिꣳ सु॒श्रव॑सं॒ जय॑न्तं॒ त्वामनु॑ मदेम सोम॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अषा॑ढम्। यु॒त्स्विति॑ यु॒त्ऽसु। पृत॑नासु। पप्रि॑म्। स्व॒र्षाम्। स्वःसामिति॑ स्वः॒ऽसाम्। अ॒प्साम्। वृ॒जन॑स्य। गो॒पाम् ॥ भ॒रे॒षु॒जामिति॑ भरेषु॒ऽजाम्। सु॒क्षि॒तिमिति॑ सुऽक्षि॒तिम्। सु॒श्रव॑स॒मिति॑ सु॒ऽश्रव॑सम्। जय॒न्तम्। त्वाम्। अनु॑ म॒दे॒म॒। सो॒म॒ ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अषाढँयुत्सु पृतनासु पप्रिँ स्वर्षामप्साँ वृजनस्य गोपाम् । भरेषुजाँ सुक्षितिँ सुश्रवसञ्जयन्तं त्वामनु मदेम सोम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अषाढम्। युत्स्विति युत्ऽसु। पृतनासु। पप्रिम्। स्वर्षाम्। स्वःसामिति स्वःऽसाम्। अप्साम्। वृजनस्य। गोपाम्॥ भरेषुजामिति भरेषुऽजाम्। सुक्षितिमिति सुऽक्षितिम्। सुश्रवसमिति सुऽश्रवसम्। जयन्तम्। त्वाम्। अनु मदेम। सोम॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 20
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    भावार्थ -
    हे (सोम) राजन् ! सेनापते ! (युत्सु) युद्धों में ( अपाढम् ) शत्रुओं से पराजित न होने वाले और (पृतनासु) सेनाओं में (पप्रिम् पूर्ण बलवान्, सबके रक्षक, ( स्वर्णम् ) सबको सुख, ऐश्वर्य के देने वाले ( अप्साम् ) मेघ के समान सबको प्राण अन्न देने वाले अथवा प्रजाओं के धन को स्वयं न खा जाने वाले, (वृजनस्य) शत्रुओं के वारण करने वाले सैन्य बल के (गोपाम् ) रक्षक, ( भरेपजाम् ) संग्रामों और यज्ञों एवं प्रजा के भरण पोषण के कार्यों में प्रसिद्ध ( सुक्षितिम् ) उत्तम निवासवर्ग, से- युक्त, उत्तम भूमि के स्वामी, ( सुश्रवसम् ) उत्तम यश ऐश्वर्य और अन्नादि से समृद्ध ( जयन्तम् ) विजय करने हारे (त्वाम् अनु ) तेरे ही हर्ष के साथ हम प्रजाजन भी ( मदेम ) प्रसन्न एवं सुखी रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - २० - २३ गोतम ऋषिः । सोमो देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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