यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्य ऋषिः
देवता - अनुमतिर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
6
अन्विद॑नुमते॒ त्वं मन्या॑सै॒ शं च॑ नस्कृधि।क्रत्वे॒ दक्षा॑य नो हिनु॒ प्र ण॒ऽआयू॑षि तारिषः॥८॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑। इत्। अ॒नु॒म॒त॒ इत्यनु॑ऽमते। त्वम्। मन्या॑सै। शम्। च॒। नः॒। कृ॒धि॒ ॥ क्रत्वे॒॑। दक्षा॑य। नः॒। हि॒नु॒। प्र। नः॒। आयू॑षि। ता॒रि॒षः॒ ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्विदनुमते त्वम्मन्यासै शञ्च नस्कृधि । क्रत्वे दक्षाय नो हिनु प्र ण आयूँषि तारिषः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अनु। इत्। अनुमत इत्यनुऽमते। त्वम्। मन्यासै। शम्। च। नः। कृधि॥ क्रत्वे। दक्षाय। नः। हिनु। प्र। नः। आयूषि। तारिषः॥८॥
विषय - अनुमति नाम पुरुष और संस्था ।
भावार्थ -
हे (अनुमते ) अनुकूल मति से युक्त, सब कार्यों की अनुमति, अर्थात् ( स्वीकृति) देने वाले सभापते ! अथवा राजसभे ! तू (नः) हमें ( अनु मन्या सै) अनुमति, स्वीकृति दिया कर । तू ( शं च कृधि ) सुख कल्याणकारी कार्य किया कर । (क्रत्वे) उत्तम मति, या बुद्धि और (दक्षाय) बल, सम्पादन करने के लिये ही (नः हिनु ) हमें प्रेरित कर । (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को ( प्र तारिपः) खूब बढ़ा ।
टिप्पणी -
त्वं मंससे 'इति अथर्व ' ० । ( तृ० च० ) 'लुषत्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि- ररास्व नः' इति अथर्व ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [ ९ ] ब्रह्मा ऋषिः । अनुमतिर्देवता । निचृद् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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