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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 39
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - भगो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सम॑ध्व॒रायो॒षसो॑ नमन्त दधि॒क्रावे॑व॒ शुच॑ये प॒दाय॑।अ॒र्वा॒ची॒नं व॑सु॒विदं॒ भगं॑ नो॒ रथ॑मि॒वाश्वा॑ वा॒जिन॒ऽआ व॑हन्तु॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। अ॒ध्व॒राय॑। उ॒षसः॑। न॒म॒न्त॒। द॒धि॒क्रावे॒वेति॑ दधि॒ऽक्रावा॑ऽइव। शुच॑ये। प॒दाय॑ ॥ अ॒र्वा॒ची॒नम्। व॒सु॒विद॒मिति॑ वसु॒ऽविद॑म्। भग॑म्। नः॒। रथ॑मि॒वेति॒ रथ॑म्ऽइव। अश्वाः॑। वाजिनः॑। आ। व॒ह॒न्तु॒ ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समध्वरायोषसो नमन्त दधिक्रावेव शुचये पदाय । अर्वाचीनँवसुविदम्भगन्नो रथमिवाश्वा वाजिनऽआ वहन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। अध्वराय। उषसः। नमन्त। दधिक्रावेवेति दधिऽक्रावाऽइव। शुचये। पदाय॥ अर्वाचीनम्। वसुविदमिति वसुऽविदम्। भगम्। नः। रथमिवेति रथम्ऽइव। अश्वाः। वाजिनः। आ। वहन्तु॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 39
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    भावार्थ -
    ( उषसः) प्रभात वेलाएं जिस प्रकार (अध्वराय) हिंसारहित, परम पवित्र यज्ञ के लिये (सं नमन्त) अच्छी प्रकार आती हैं, प्रकट होती। उसी प्रकार (अध्वरस्य) शत्रुओं से न मारे जाने योग्य प्रजापालन रूप राज्य कार्य के लिये (उषसः) शत्रुदाहक तेजस्वी पुरुष (सं नमन्त) अच्छी प्रकार एकत्र होते हैं और (दधिक्रावा) पीठ पर पुरुष को धारण करके चलने में समर्थ अश्व जिस प्रकार ( पदाय) प्राप्त करने योग्य दूर देश को प्राप्त होता है उसी प्रकार (दधिक्रावा) राष्ट्रकार्य को अपने ऊपर धारण करके उसके चलाने और पराक्रम करने में समर्थ राजा (शुचये) अत्यन्त शुद्ध, तेजस्वी, ईर्षा, द्वेष, लोभ, काम, राग आदि से रहित, ईमानदार,धर्मयुक्त (पदाय) पद प्राप्त करने के लिये (सं नमतु) प्राप्त हो। इसी प्रकार (दधिक्रावा) ध्यान बल से भ्रमण करने वाला योगी शुचि पद, परम पावन परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये यज्ञ करता है और ( वाजिन: अश्वाः) वेगवान् अश्व ( रथम् इव ) जिस प्रकार रथ को धारण करते हैं उसी प्रकार (अश्वाः) विद्या अधिकार में व्यापक सामर्थ्य वाले ( वाजिनः ) अन्न आदि ऐश्वर्य और ज्ञानों वाले विद्वान् पुरुष ( रथम् ) रथयुक्त, एवं सुख देने वाले ( अर्वाचीनम् ) साक्षात्, (वसुविदम् ) ऐश्वर्य को देने और करने वाले ( भगम् ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर का (आ वहन्तु) उपदेश करें और ऐश्वर्यवान् राजा व राज्य को धारण करें ।

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