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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 26
    ऋषिः - आङ्गिरसो हिरण्यस्तूप ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    हिर॑ण्यहस्तो॒ऽअसु॑रः सुनी॒थः सु॑मृडी॒कः स्ववाँ॑ यात्व॒र्वाङ्।अ॒प॒सेध॑न् र॒क्षसो॑ यातु॒धाना॒नस्था॑द् दे॒वः प्र॑तिदो॒षं गृ॑णा॒नः॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यहस्त॒ इति॒ हिर॑ण्यऽहस्तः। असु॑रः। सु॒नी॒थ इति॑ सुऽनी॒थः। सु॒मृ॒डी॒क इति॑ सुमृडी॒कः। स्ववा॒निति॒ स्वऽवा॑न्। या॒तु॒। अ॒र्वाङ् ॥ अ॒प॒सेध॒न्नित्य॑प॒ऽसेध॑न्। र॒क्षसः॑। या॒तु॒धाना॒निति॑ यातु॒ऽधाना॑न्। अस्था॑त्। दे॒वः। प्र॒ति॒दो॒षमिति॑ प्रतिऽदो॒षम्। गृ॒णा॒नः ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यहस्तोऽअसुरः सुनीथः सुमृडीकः स्ववा यात्वर्वाङ् । अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषङ्गृणानः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यहस्त इति हिरण्यऽहस्तः। असुरः। सुनीथ इति सुऽनीथः। सुमृडीक इति सुमृडीकः। स्ववानिति स्वऽवान्। यातु। अर्वाङ्॥ अपसेधन्नित्यपऽसेधन्। रक्षसः। यातुधानानिति यातुऽधानान्। अस्थात्। देवः। प्रतिदोषमिति प्रतिऽदोषम्। गृणानः॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 26
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    भावार्थ -
    ( हिरण्यहस्त:) सब प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त और सब दिशाओं में अपने किरणरूप हस्तों वाला, ( असुरः ) सबका प्राणदाता, बलवान्, (सुनीथः) सुखपूर्वक सबको प्राप्त, (सुमृडीकः) उत्तम सुखप्रद, ( स्ववान् ) उत्तम गुणों धनों से युक्त (अर्वाङ् याति) अपने गुणों को प्रकट करता हुआ सूर्य या वायु जिस प्रकार प्राप्त होता है उसी प्रकार यह राजा और सभापति (हिरण्यहस्तः) प्रजा के हित और रमणीय सुखकारी पदार्थों को और सुवर्ण आदि बहुमूल्य धनैश्वयों को अपने हाथ में, अपने अधीन रख कर तेजस्वी (असुर) समस्त प्रजाओं को प्राण देने वाला, उन पर अनुग्रह करने और उनको वृत्ति देने वाला, (सुनीथः) उत्तम मार्ग से प्रजा को चलाने हारा या उत्तम स्तुतियोग्य, (सुमृडीकः) सुखकारी, दयालु, ( स्ववान् ) धनाढ्य, एवं अपने आत्मबल से युक्त होकर (अर्वा यातु) शत्रु के अभिमुख और प्रजा के प्रति भी मान करे और वह (यातु- धानात् ) प्रजाओं को पीड़ा देने वाले, एवं दण्डित करने योग्य ( रक्षसः). दुष्ट, चोर, डाकू आदि प्रजापीड़क लोगों को ( अप सेधन् ) दूर करता हुआ (प्रतिदोषम् ) प्रजा के प्रत्येक दोष के सुधार के लिये उनको (गृणान:) उत्तम मार्गोपदेश करता हुआ (देव:) दानशील, विद्वान्, सर्वद्रष्टा राजा ( अस्थात् ) सिंहासन पर स्थिति प्राप्त करे । अथवा (प्रतिदोषं गृणान: ) प्रति रात्रि काल में या प्रतिदिन लोगों को सावधान करता हुआ विराजे । 'रक्षसः ' — रक्षो रक्षयितव्यमस्मात् । इति निरु० । ४ । १८ ॥ 'प्रतिदोषम्'– प्रतिजनं यो दोषः तम् । श्रुतिस्मृतिविहितधर्म पराङ्मुखानां यावन्तो दोषास्तावतो गृणानः इति महीधरः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूपः । सविता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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