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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 30
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    द्युभि॑र॒क्तुभिः॒ परि॑ पातम॒स्मानरि॑ष्टेभिरश्विना॒ सौभ॑गेभिः।तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वीऽउ॒त द्यौः॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्युभि॒रिति॒ द्युऽभिः॑। अ॒क्तुभि॒रित्य॒क्तुऽभिः॑। परि॑। पा॒त॒म्। अ॒स्मान्। अरि॑ष्टेभिः। अ॒श्वि॒ना॒। सौभ॑गेभिः ॥ तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। मा॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्युभिरक्तुभिः परि पातमस्मानरिष्टेभिरश्विना सौभगेभिः । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवीऽउत द्यौः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्युभिरिति द्युऽभिः। अक्तुभिरित्यक्तुऽभिः। परि। पातम्। अस्मान्। अरिष्टेभिः। अश्विना। सौभगेभिः॥ तत्। नः। मित्रः। वरुणः। मामहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 30
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    भावार्थ -
    ( अश्विना ) व्यापक अधिकार और सामर्थ्य वाले सभाध्यक्ष और सेनाध्यक्ष, तुम दोनों ( युभिः अक्तुभिः ) दिनों और रात्रियों में (अरिष्टेभिः) अविनष्ट, एवं मंगलकारक, सुखप्रद, हितकारी (सौभगेभिः ) सौभाग्यों, धन सम्पदाओं से ( अस्मान् परिपातम् ) हम प्रजाजनों की रक्षा करो। (तत्) तब (मित्र: वरुणः) मित्र स्नेही और वरुण, दुष्टवारक, सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश और दण्डाध्यक्ष दोनों (नः) हमारे पालन के कार्यं को ( मामहन्ताम् ) और अधिक उत्तम एवं कीर्ति योग्य बनावें । (अदिति:) अखण्ड राज्यशासन करने वाली राजसभा और (सिन्धुः ) राज्यप्रबन्ध द्वारा देशों और प्रजाओं को परस्पर बांधने वाला, समुद्र के समान गम्भीर राजा ( पृथिवी उत द्यौः) पृथिवी के समान विस्तृत और सूर्य के समान तेजस्वी दोनों (मामहन्ताम् ) राजा के रक्षण कार्य को उन्नत करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स ऋषि: । अश्विनौ देवते । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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