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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 53
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - इन्दु र्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    इन्दु॒र्दुक्षः॑ श्ये॒नऽऋ॒तावा॒ हिर॑ण्यपक्षः शकु॒नो भु॑र॒ण्युः। म॒हान्त्स॒धस्थे॑ ध्रु॒वऽआ निष॑त्तो॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः॥५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्दुः॑। दक्षः॑। श्ये॒नः। ऋ॒तावे॑त्यृ॒तऽवा॑। हिर॑ण्यपक्ष॒ इति॒ हिर॑ण्यऽपक्षः। श॒कु॒नः। भु॒र॒ण्युः। म॒हान्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। ध्रु॒वः। आ। निष॑त्तः। निऽस॑त्त इति॒ निऽस॑त्तः। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒ ॥५३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्दुर्दक्षः श्येनऽऋतावा हिरण्यपक्षः शकुनो भुरण्युः । महान्त्सधस्थे धु्रवऽआनिषत्तो नमस्तेऽअस्तु मा मा हिँसीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्दुः। दक्षः। श्येनः। ऋतावेत्यृतऽवा। हिरण्यपक्ष इति हिरण्यऽपक्षः। शकुनः। भुरण्युः। महान्। सधस्थ इति सधऽस्थे। ध्रुवः। आ। निषत्तः। निऽसत्त इति निऽसत्तः। नमः। ते। अस्तु। मा। मा। हिꣳसीः॥५३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 53
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (एक यज्ञकर्ता प्रजाजन म्हणत आहे) हे विद्वान सभापती (राजा), आपण (इदु:) चंद्राप्रमाणे शीतल स्वभावाचे आणि (दक्ष:) शक्ती व चातुर्य युक्त आहात. आपण (श्येन:) बहिरी ससाण्याप्रमाणे पराक्रमी असून (ऋतावा) सत्याचरणाशी संबंधित (सदाचारी व सत्यभाषी) आहात. आपण (हिरण्यपक्ष:) सुवर्ण (आदी मौल्यवान धातुमुळे समृद्ध) असून (शकुन:) शक्तिमान आहात. आपण (भुरण्यु:) सर्वाच पालनकर्ता असून (महान) सर्वांपेक्षा श्रेष्ठ आहात. आपण (सधस्थे) दुसर्‍याच्या (शत्रुच्या) प्रदेशावर (विजय मिळवून) (आर, विषत:) त्यावर राज्य करणारे व (ध्रुव:) तिथे स्थायी शासन मिळविणारे आहात. (आपणास विनंती की) (मा) मला (एक प्रामाणिक प्रजाजनाला) (मा) (हिंसी:) मारू नका (वा कोणता त्रास होऊ देऊ नका) अशा सद्गणांनी युक्त (ते) आपणाला (आम्हा प्रजाजनांचा) (नम:) सत्कार (अस्तु) प्राप्त होवो (आम्ही आपणास नमन करतो) ॥53॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. या जगात विद्वानांनी नियंत्रितपणे सर्व विद्यार्थ्यांना चांगला उपदेश व हितकर शिक्षण द्यावे की ज्यामुळे ते विद्यार्थी कधी कोणाची हिंसा करणार नाहीत. ॥53॥

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