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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 62
    ऋषिः - देवश्रवदेववातावृषी देवता - विश्वकर्माग्निर्वा देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    येन॒ वह॑सि स॒हस्रं॒ येना॑ग्ने सर्ववेद॒सम्। तेने॒मं य॒ज्ञं नो॑ नय॒ स्वर्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे॥६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। वह॑सि। स॒हस्र॑म्। येन॑। अ॒ग्ने॒। स॒र्व॒वे॒द॒समिति॑ सर्वऽवेद॒सम्। तेन॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। नः॒। न॒य॒। स्वः᳖। दे॒वेषु॑। गन्त॑वे ॥६२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन वहसि सहस्रँयेनाग्ने सर्ववेदसम् । तेनेमँयज्ञन्नो नय स्वर्देवेषु गन्तवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। वहसि। सहस्रम्। येन। अग्ने। सर्ववेदसमिति सर्वऽवेदसम्। तेन। इमम्। यज्ञम्। नः। नय। स्वः। देवेषु। गन्तवे॥६२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 62
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (अग्ने) अध्यापक आणि विद्यार्थी, तू (येम) ज्या अध्यापनाद्वारे (सहस्रम्) हजारो प्रकारचे अतुलनीय बोध देतोस (सर्ववेदसम्) की ज्याद्वारे सर्व वेदांना जाणता येते, तू (वहसि) त्या योग्यतेसाठी पात्र ठरतोस तसेच (येन) ज्या अध्यापनाद्वारे तू तेच ज्ञान इतरांनाही प्राप्त करून देतोस (तेन) तेच ज्ञान (इयम्) तू या (यज्ञम्) अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञाद्वारे (न:) आम्हा (सामान्यजनांपर्यंत) तसेच (देवेषु) दिव्य गुणवान विद्वानांपर्यंत (स्वर्गन्तेने) त्यांनी सुख प्राप्त होण्यासाठी (नय) ने (तू ते वेदज्ञान विद्यार्थी, अध्यापक, सर्वसामान्य जन आणि श्रेष्ठ विद्वानांनाही दे) ॥62॥

    भावार्थ - भावार्थ - जे लोक धर्माप्रमाणे आचरण करीत निष्कपटवृत्तीने सर्वांना विद्या देतात तसेच विद्या ग्रहण करतात त्यांनाच सुखाची प्राप्ती होते ॥62॥

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