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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 57
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवता छन्दः - निचृत पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    उप॑हूताः पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॑ बर्हि॒ष्येषु नि॒धिषु॑ प्रि॒येषु॑। तऽआग॑मन्तु॒ तऽइ॒ह श्रु॑व॒न्त्वधि॑ ब्रुवन्तु॒ तेऽवन्त्व॒स्मान्॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑हूता॒ इत्यु॑पऽहूताः। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। ब॒र्हि॒ष्ये᳖षु। नि॒धिष्विति॑ नि॒ऽधिषु॑। प्रि॒येषु॑। ते। आ। ग॒म॒न्तु॒। ते। इ॒ह। श्रु॒व॒न्तु॒। अधि॑। ब्रु॒वन्तु॑। ते। अ॒व॒न्तु॒। अ॒स्मान् ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । तऽआ गमन्तु तऽइह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु ते वन्त्वस्मान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपहूता इत्युपऽहूताः। पितरः। सोम्यासः। बर्हिष्येषु। निधिष्विति निऽधिषु। प्रियेषु। ते। आ। गमन्तु। ते। इह। श्रुवन्तु। अधि। ब्रुवन्तु। ते। अवन्तु। अस्मान्॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 57
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (शिष्यांची कामना) जे आमचे (सोम्यासः) ऐश्वर्य वा कीर्तिप्राप्त (पितरः) (शिक्षक) आहेत, त्यांना (बर्हिष्येषु) उत्तम (प्रियेषु) अतिप्रिय (निधिषु) रत्न आदींनी भरलेले कोष घेण्यासाठी आम्ही (शिष्यांनी) (उपहूताः) बोलाविले आहे (ते) ते पितर (इह) या आमच्या स्थानात (आ, गमन्तु) यावेत. (ते) त्यांनी आमचे वचन वा आमंत्रण (श्रुवन्तु) ऐकावे वा स्वीकारावे आणि (अस्मान्‌) आम्हा (इच्छुक विद्यार्थ्यांचे) (अधि, बुवन्तु) आणखी अधिक उपदेश आदी देऊन प्रबोधन करावे आणि त्याद्वारे (ते) त्यांनी आमची (अवन्तु) रक्षा करावी ॥57॥

    भावार्थ - भावार्थ - जे विद्यार्थी अध्यापकांना आमंत्रित करून, त्यांचा यथोचित सत्कार करून त्यांच्यापासून विद्याग्रहणाची इच्छा करतात, त्या शिक्षकांचेही कर्तव्य आहे की त्यांनी इच्छुक विद्यार्थ्यांना मोठ्या प्रेमाने शिक्षण द्यावे आणि त्यांना विषयासक्ती आदी दुष्कर्मांपासून सर्वथा दूर ठेवावे. ॥57॥

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