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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 23
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दे॒वेन॑ नो॒ मन॑सा देव सोम रा॒यो भा॒गꣳ स॑हसावन्न॒भि यु॑ध्य।मा त्वा त॑न॒दीशि॑षे वी॒र्य्यस्यो॒भये॑भ्यः॒ प्र चि॑कित्सा॒ गवि॑ष्टौ॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वेन॑। नः॒। मन॑सा। दे॒व॒। सो॒म॒। रा॒यः। भा॒गम्। स॒ह॒सा॒व॒न्निति॑ सहसाऽवन्। अ॒भि। यु॒ध्य॒ ॥ मा। त्वा॒। आ। त॒न॒त्। ईशि॑षे। वी॒र्य्य᳖स्य। उ॒भये॑भ्यः। प्र। चि॒कि॒त्स॒। गवि॑ष्टा॒विति॒ गोऽइ॑ष्टौ ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवेन नो मनसा देव सोम रायो भागँ सहसावन्नभियुध्य । मा त्वा तनदीशिषे वीर्यस्योभयेभ्यः प्र चिकित्सा गविष्टौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवेन। नः। मनसा। देव। सोम। रायः। भागम्। सहसावन्निति सहसाऽवन्। अभि। युध्य॥ मा। त्वा। आ। तनत्। ईशिषे। वीर्य्यस्य। उभयेभ्यः। प्र। चिकित्स। गविष्टाविति गोऽइष्टौ॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 23
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (सहसावन्) मोठ्या सैन्यशक्तीचे स्वामी (सोम) हे समस्त ऐश्‍वर्यदाता, हे (देव) दिव्यगुणवान राजा, आपण आपल्या (देवेन) उवम गुणकर्म स्वभावाद्वारे (मनसा) खर्‍या मनाने (स्वेच्छेने) (भागम्) प्राप्त धनाचा काही भाग (नः) आमच्याकरिता प्रजेच्या कल्याणा करिता) (अभि, युध्य) सर्व दिशांकडून प्राप्त करा (व प्रजेसाठी व्यय करा) यामुळे आपण (वीर्य्यस्य) वीर कर्म करण्यासाठी (ईशिषे) समर्थ व्हाल. (आम्ही कामना करतो की) (त्वा) आपणाला कोणी (शत्रू वा विरोधक) (मा, आ, तनक्) पराभूत करण्यास समर्थ होऊ नये. यासाठी आपण (गविष्टौ) सुखप्राप्तीच्या विशेष इच्छेमुळे (उभयेभ्यः) दोन्ही लोकात, इहलोकात व परलोकात (परजन्मीं) सुखप्राप्तीसाठी (प्र, चिकित्सा) विशेष यत्न करीत जा. जसे लोक औषधीमुळे रोगनिवृत्ती करतात, तद्वत आपण येणार्‍या संभवित विघ्न निवारित करा. ॥23॥

    भावार्थ - भावार्थ - राजा आणि विद्वानांसाठी हे उचित आहे. की त्यांनी कपट आदी दोषांचा नाश करून शुद्ध भावनेने सर्वांकरिता सुखाचीच कामना करावी. पुरुषार्थ व पराक्रम वाढवावा आणि ज्या कर्मामुळे या लोकी व परलोकी दुःख निवृत्ती होईल व सुखवृद्धी होईल, तीच कर्मे करण्यासाठी सदैव यत्नशील असावे. ॥23॥

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